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________________ सत्यामृत - - - - - - - - - -- - - -- - -- है। उनमें मन रंग जाना है। एक ईसानदार न-भक्ति योगी जानमक भले ही रहे नौकर अपने गुणहीन मालिक का भी भावनपान्तु भक्ति से किसी को शेगी मानना क्या जना है, त्याब से उसके मनपर मालिक को उचित है । भक्ति तो एक तरह का मोह है महत्ता की धार वैटजाती है, और उसमें अनुराग मोही को योगी कहना कहां तक ठीक है १ भक्ति भोनर से जाना है। जहा मनपर महत्ता की और योग का एक तरह से विरोध है ? घारी और प्रेम हो यहा भक्ति सममना उत्तर-मका में कोई योगी नहीं कहचाहिये । बहा ये दानां या दो में से कोई एक न लाना, योगी नो निष्पाप जीवन और जीवनमें होकासि शिष्टाचार रह सकेगा, भक्ति नहीं। भोर मात करतेने से कहलाता है पर इस जीवन यति ( याशो) बिना समझे, के लिये जो योगी भक्ति का सहारा लेता है यह हिताहिन का विचार किये विजा कुसंधार श्रादि भक्ति योगी कहाशाता है । भम्ति उसके लिये को कारण जो भास होती है वह अन्धाक है। व्यसम्बन मात्र है । भक्ति के द्वारा उसने आत्मइसम विवेक नहीं होता और हरता जरूरत से समपण किया है इसलिये उसका अहंकार नष्ट अधिक होती है। दुद्धि को कोई नई बात जच होगया है, दुर्वासनाएँ दय गई हैं. इभक्ति में जाय पार पुरानी बात वीक न मालूम हो तो भी लीन होने से दुनिया की चोट उसके मनपररमा घर पुगनी की कि करता रहेगा। मतलब यह पान नहीं करपानी जिससे वह निराश संज्ञाय दि अन्धमा मिसी सुमितका अनुभव की पर्वाह इष्ट नाप्ति का अाशा से वह अपने को इतना नहीं करना असफल नहीं मानता कि सफलता के लिए यह -ज्ञानमत भी अपने विचार पर पाप में प्रवृत्त होजाय, इसप्रकार उम्मी भक्ति सतना बद्ध रहता है कि वह रिसीसी पर्वाह नहीं भीतरी बाट म सफल और शुद्ध होनेपर योग को काना नब क्या उस भी अन्धभक्त कोगे। सहारा देती है। कंवल भजन करने में कोई मत अन्धभक र जानकी लाप.. योगी नही होजाना । पानी में कला है अन्धमा विना विचारला. भक्त को मोह कहना अनुचित है । स्वार्थवापरमा पर कानमत निपज हदथम भारत और अन्यभक्ति मोह कहलाती है ज्ञान. मानमारमी मत्य पर सदा का अमर- मति नही । शानभर में स्थिर रहता है। पर RAIPS TIME कानमन्त जब यह हा विक है यहा नाही ? अनुभमननना पृथक भार विचार का प्रश्न-योगी किमी का भन्न नहीं हांसनाराम जय रट्टा काय मानी तो नंगा मकर नाणी है म सलना कर दि हाई सनी दुराम इनले मनन कोन है ? बिना वह भा' करेगा। रमानुभवमान बारे का उमा, सामनाना चाहता है. नत्र ज्ञानभरन । चाकी गर ईश्वरवाती है तो यह । मरी पानीमा पारवा की भक्ति करेगगाईगानीश समयBामा स्नुि या विचार गतीमान माश्यबाट नो यह मन्य श्री. मारनं जिन्म बार बार परी नया अनेक गुपदयो री मति करेगा 1 प्राणियों भी मारा दिमाईनाना वा नाप में वर मोट होनस्ता’ सिन्नु न्याया म सा माना यह लघु और अपनी " PETE Timi मा यो नाभी धुना। इसका भी है। TAIT मा म पनीरवाः मेय. मस्त या सिद्धानभन + Harir-1 में भावना को सन्तुष्ट की
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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