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________________ साकार का गुण को या सिद्धात को ईयर का रूपन अन्धभक्ति न बनजाय इसका ध्यान रखना देगा, फिर भी उसकी दूद मक् ते करेगा। चाहिये । व्यक्ति का अवलम्बन लेकर अगर प्रश्न का व्यानि की भाति नही की कोई मनुष्य जीवन की पवित्रता और मोक्ष को जासकती अथवा क्या व्यक्त की भक्ति करने से सकता है और सुरक्षित रख सकता है, तो योगी नहीं बनानासकता? उसे भारत योगी कहेंगे। सच तो यह है कि ऐसा भक्ति योगी व्यक्ति की ओट में ईश्वर को या उत्तर--रक्त की भक्त दो कारणों से की जासकती है एक तो कृतज्ञता के कारण, गुणो की मात करता है। दूसरे गुणाधिकता के कारण। योगी मनुष्य स्वयं सन्यास-योग [ मेमिंचो जिम्मो ] बुद्ध भी हो सकता है और दूसरा के दिये हुए वृद्धता आदि शारीरिक अशकति अथवा ज्ञान को सफर भी योगी होसका है। स्वयंवद्ध मानसिक थकावट या समाज-सेग के कार्य में तो सैकड़ों में एकाध होते है याकी दस द्वारा अपनी विशेष उपयोगिता न रहने के कारण दिये हुए जान से होते हैं वे ओगी होगाने पर समाज संघर्ष का क्षेत्र छोड़ कर एहिक दुखों की भी ज्ञानात या पक गुरु की भाति सेवा पर्वाह किये बिना निष्पाप जीवन व्यतीत करना श्रादर आदि करते हैं। दूसरा कारण यह है सन्यास-योग है। संक्षेप में निवृत्ति-प्रधान निष्पाप कि योगी होजाने पर भी गुणों की दृष्टि से तरत- जीवन संन्यास-योग है। मता होती है। जनसेवा के लिये उपयोगी वाहरी यह योग युवावस्था के व्यतीत हो जाने पर गुणा में नथा व्यवहारकुशलता मे एक योगी ही धारण करना चाहिये । इसमें भी योगकी दूसरे योगी से न्यूनाधिक हो हो सकता है किन्तु दानी विशेषता पाई जाती हैं, निष्पाप जीवन जीवन की निष्पापग और मोच में मोश्रोड़ा और दुःखविजय । इनसे दु.ख-माश और सम्वबहुत अन्तर होसकता है। मायावेगा की तरतमता पायवासनाको की नरतमता आदि नेक प्राप्ति होती है। तरह की पारसरिक समता योगियों में होती । भक्तियोग की तरह यह भी आपवादिक है।हा। वे सब के सर जनसाधारण की अपेक्षा . माग है जीवन में कभी कभी इसकी भी आवश्यभी जानता या पधदशक गुरु की मात सेवा । . कता पड़ जाती है । चिन अवसर पर यह पावर आदि करते है , दूसरा कारण यह है कि, . अच्छा है। पर जो लोग सिर्फ भिक्षा मागने के योगी होजाने पर भी गुणो की दृष्टि से सरतमता लिय, आलसी जीवन बिताने के लिये या अपनी हानी है । जनसेवा के लिये उपयोगी बाहरी पूजा कराने के लिये संन्यास का दाम करते है गेणी में तथा व्यवहार कुशलतामें एक योगी दूसरे अपने आवश्यक कर्तव्य से मुंह मोड कर नाज योगी से न्यूनाधिक होही सकता है, किन्तु जांधन के बोझ बन जाते हैं वे अवश्य ही निध हैं. २ चन योगी नहीं है. संन्यासयोगी अपने आपमे +, त रहता है वह दुनिया को नहीं सताता अ. अन्तर होसकता है । भावावेगो की तरतमता, दुनिया उसे सताये तो पर्वाह नहीं करता कमाययातनाओ की नरतमता श्रादि अनेक तरह रह शिष्टानुग्रह ( भलो की भलाई ) दुष्टः .. की पारसरिक तरतमता योगिया में होती है। धुरा की बाई ! उसके जीवन में गौण है हा। ये सबके सब जनसाधारण की अपेक्षा पता सदाचारी होन के साथ वह स्वावलंबी, ५१ । कासी पवित्र और विकसित होते है। उन्हें पर्याप्त मात्रा में मोत भी प्राप्त रहता है इसलिये उन सब प्रिय, तपस्वी और सहिष्णु होता है। को योगी तो कहना चाहिये फिर भी उनमे तर- प्रश्न-भक्ति-योग और संन्यास-योग तमता होमकती है इसलिये गुणाधिक की भति व्या अन्तर है ?
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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