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योगी अनुय या शान्त कैसे रहे ? और शान्त न कि मेरा खेल अच्छा हो रहा है या नहीं। यही रहे तो वह गोगी कैसे ?
परामनोवृत्ति है। उत्तर--जहा क्षोभ भाषा का अग है वहां प्रश्न--इस प्रकार अपनी परावृत्ति और योगी क्षोम प्रगट करे तो इसमें बुराई नहीं है। अपरावृत्ति का भेद समझा जा सकता है पर पर लोभ के प्रवाह मे वह बह न जाय और परा दूसरे की परावृत्ति और अपरावृत्ति का भेद कैसे मनोवृत्ति नुन्ध न हो जाय । अपरा मनोवृत्ति के समझ में आवे ? यों तो हरएक आदमी कहने तुन्ध होने से योगीपन नष्ट नहीं होता। वह लगेगा कि मैं परमशात हू', योगी हूँ और जो निग्रह अनुग्रह करेगा, क्रोध प्रगट करेगा फिर भी अशांति या कपाय दिख रही है वह अपरावृत्ति परामनोवृत्ति निर्लिप्त रहेगी।
की है इस प्रकार योगी-अयोगी मे बडी गडबडी प्रश्न--यह परा और अपरामनोवृत्ति क्या हो जायगी। है और इसमें क्या अन्तर है ?
उत्तर-ऐग्नी गड़बड़ी होना सभव है पर इस उत्तर-इसे ठीक समझने लिये तो अनु. गडबडी की परेशानी से बचने के दो उपाय है भव ही साधन है। चिन्हों से या दृष्टान्ता से पहिली बात तो यह कि परामनोवृति के विपन में उसका कुछ अंदाज लगा सकते हैं। कालिक या स्थिर मनोवृत्ति को परा मनोवृत्ति कहते हैं।
शाब्दिक दुहाई का कोई मूल्य न किया जाय । और क्षणिक या सामयिक मनोवृत्ति को अपरा
HD समाज के प्रति मनुष्य अपनी अपरा मनोवृत्ति मनोवृत्ति कहते हैं । जब हम स्मशान में जाते हैं
के लिये जिम्मेदार है । परामनोवृत्ति का मजा तो एक तरह का वैराग्य हमारे मन पर छा
उसे लेना है तो लेता रहे, समाज को इससे कोई
" जाता है जो कि घर आने पर कुछ समय बाद मतलब नहीं । एक लम्बा समय बीन लाने दूर हो जाता है यह वैराग्य अपरामनोवृत्ति का पर अगर उसको परावृत्ति की निर्दोषता के सूचक है और जब वुढापे में किसी का जवान बेटा मर प्रमाण मिलेगे तब देखा जायगा। दूसरी बात जाता है जिसके शोक में वह दिनरात रोया यह कि परा-मनोवृत्ति के सूचक तीन चिन्ह है करता है तो यह शोक परा मनोवृत्ति का है। उनसे उसकी पहिचान की जा सकती है। हमारे मन मे क्रोध आया परन्तु थोड़ी देर बाढ १-न्याय-विनय, २-विस्मृत वत् व्यवहार-३ क्रोध की नि सारता का विचार भी आया, जिस पापी-पाप-भेद। पर क्रोध हुआ था उस पर द्रुप न रहा तो कहा जा सकता है कि यहा अपरामनोवृत्ति सुन्ध हुई
न्याय-विनय ( उंको नायो ) योगी तभी
३२ क्रोधादि प्रगट करेगा जब किसी अन्याय का परा नहीं। जैसे नाटक का खिलाडी रोते हँसते. हुए भी भोत्तर से न रोता है न हंसता है उसी
विरोध करना पड़े इसलिये उसमे नि विचाप्रकार योगी की परा मनोवृत्ति न रोती है न
रकता तो होना ही चाहिये । यह अपनी गलती सती है। नाटक के खिलाडी दो तरह के होते हैं
ME समझने और सुधारने को हर समय तैयार एक तो वे जो सिर्फ गाल बजाते हैं, हाथ मटकाते रह
रहेगा और पश्चाताप भी करेगा। अगर न्याय है पर जिनके मन पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता
के सामने वह मुक नहीं सकना तत्र समझना
चाहिये कि उसकी परा-मनोवृत्ति भी दूपित है। उनको अपरामनोवृत्ति भी नहीं भीगती, वे सफल खिलाडी नही है। सफल खिलाड़ी वही हो .२-विस्मृत-वत्-व्यवहार (भूसूर हाजो) घट सकता है जिसकी अपरामनोवृत्ति भीगती है। नाक हो जाने पर या उसक फलाफल का कार्य वह सचमुच गेता है, हॅसला है फिर भी इस रोने हो जाने पर इस तरह व्यवहार करना मानो वह
सने के भीतर भी एक स्थायीभाव है जो न रोता घटना हुई ही नहीं है, हम वह घटना बिलकुल है न मना है वह सिर्फ इतना विचार करता है भूल गये हैं। इस प्रकार का व्यवहार अपाय