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________________ है, निरर्थक सेवा उसका लक्ष्य न होना चाहिये, पर अगर वह निष्फल समझ कर उस सेवा को छोड़ देता है तो उपेक्षा विजयी नहीं रहता, ऐसी हालत मे वह क्या है ? उत्तर - उपेक्षा से अगर निष्फलता का पता लगता हो इसलिये कोई कार्य छोड़ने की आवश्यकता हो जिससे वह शक्ति दूसरी जगह लगाई जा सके यह एक बात है और उपेक्षा को विघ्न समझकर कर्तव्य त्याग करना दूसरी बात है | पहिली बात मे विवेक है दूसरी में कायरता है। किसी भ्रम के कारण किसी अनावश्यक अनुचित या शक्ति से बाहर कार्य को कर्तव्य समझ लिया हो तो उसकी अनावश्यकता आदि समझ में या जाने पर उसका त्याग करना अनु चित नहीं है, पर इससे मुझे यश नहीं मिलता मान प्रतिष्ठा नही मिलती इत्यादि विचारों से छोड़ बैठना अनुचित है। यह एक तरह की स्वार्थान्धता है। ४ प्रलोभन - विजय ( जेलों भोजयो ) - उपेक्षा विजय से भी कठिन प्रलोभन विजय है । कल्याण मार्ग में वह सब से बड़ा विघ्न है । कल्याणपथ के पथिक बनने का जो सात्विक आनन्द है उसको नष्ट करने का प्रयत्न प्रलोभन किया करते हैं। अगर यह काम छोड़ दू' तो इतनी सम्पत्ति मिल सकती है, इतना सम्मान और वाहवाही मिल सकती है, पद मिल सकता है, भोगोपभोग मिल सकते हैं, देखो अमुक आदमी इतना धन यश मान प्रतिष्ठा पद सहयोग आदि पा गया है उसी रास्ते चलू' तो मैं भी पा सकता हूँ इत्यादि प्रलोभन के जाल में योगी नहीं श्राता। मानप्रतिष्ठा यश आदि से उसे गैर नहीं है पर जिसको उसने कल्याण समझा उसके लिये वह धन पद मान प्रतिष्ठा आदि का बलिदान कर देता है। अधिक कल्याण के कार्य में अगर यश न मिलता हो और अल्प कल्याण के कार्य में यश मिलता हो तो भी वह यश की पर्वाह न करेगा वह अधिक कल्याण का कार्य ही करेगा। कोई भी प्रलोभन उसे कल्याण पथ से विचलित नहीं कर सकता। काड | १८७ ] प्रश्न – अगर योगी को यह मालूम हो कि अमुक पद या अधिकार पानेसे, वैभव मिलने से, या किसी रकार व्यक्तित्व बढ़ने से आगे बहुत सेवा हो सकेगी इसलिये कुछ समय कल्याण मार्ग में शिथिलता दिखलादी जाय तो कोई हानि नहीं है, तो इस नीतिज्ञता या चतुराई को क्या प्रलोभन के आगे योगी की पराजय मानना चाहिये १ उत्तर - यह तो कर्तव्य की तैयारी है इस में पराजय नहीं है। पर एक बात ध्यान में रखना चाहिये कि यह सचमुच तैयारी हो । कायरता या मोह न हो । अगर जीवन भर यह तैयारी ही चलती रही, समय आने पर भी कर्तव्य न किया, या तैयारी के अनुसार कार्य न किया तो यह प्रलोभन के श्रागे अपनी पराजय ही समझी जायगी । साधारणतः यह खतरे का मार्ग है। तैयारी के बहाने प्रलोभन के मार्ग मे जानेपर बहुत कम मी प्रलोभन का शिकार कर पाते हैं, अधिकाश व्यक्ति प्रलोभन के शिकार बन जाते हैं । कर्तव्यशील मनुष्य तो वहीं से अपना कर्तव्य शुरु कर देता है जहा से उसे कर्तव्य का भान होने लगता है। अपवाद की बात दूसरी है। पर अपवाद की सचाई की परीक्षा तभी होगी जब तैयारी का उपयोग वह कर्तव्य के लिए करेगा। तब तक उसे अपवाद कहलाने का दावा न करना चाहिये। ठीक मार्ग यही है कि कर्तव्य करते हुए शक्तिसंचय आदि किया जाय । इस प्रकार इन चार प्रकार के विघ्नों पर विजय प्राप्त करके योगी स्वपरकल्याण के मार्ग में आगे बढता जाता है । PRIN २ निर्भयता ( डिडो) ** योगी की दूसरी लब्धि है निर्भयता । भय अनेक तरह का होता है पर वह सभी स्यान्य नहीं है। भय एक गुण भी है। जो कल्याण के लिये श्रावश्यक हैं ऐसे भयों का त्याग नहीं करना चाहिये । भय के तीन भेद हैं- १ भक्तिभय २ विरक्तिमय, ३ अपायमय ।
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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