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________________ - -- - -- - - - १ भक्तिमय (भक्तहिडो)- कल्याणमार्ग भय, दूसरे के दिल दुखने का भय आदि नाना में जो रेरक हैं जिनके विषय में हमें भक्ति है भय विरक्तिमय हैं । जब कहा जाता है-कुछ पाप आदर हैं कृतज्ञता है उनका भय भक्तिमय है। सहरो तब उसका अर्थ यही विरक्तिमय है। यह यह मनुष्य का महान सद्गुण है। ईश्वर से डरो. भी एक पावश्यक भय है सद्गुण है। गुरुजनों से डगे, आदि वास्यों में इसी भय से ३ अपायमय (मुग्गो डिडो)- धनहानि, मतलब है। इस भर का त्याग कमी न करना अधिकारहानि, गशोहानि. प्रियजनहानि, भोगचाहिये। हानि, मृत्यु, जरा रोग, आघात, अपमान आदि रन-बहत से आदमी सिर्फ इसीलिय नाम तरह के अपाय हैं इनका भय अपायमय कर्तव्य से भ्रष्ट हो जाते हैं कि उनके मूह माता योगी इन अपायों से ऐसा नहीं डरता कि पिता उसमें बाधा डालते हैं। अगर उनकी आज्ञा सत्य के मार्ग से विमुख होजाय । यद्यपि जान न मानी जाय तो वे घर से निकाल देगे जायदाह में हिस्सा न देंगे इसलिय अमुक कुरूढ़ियों का बूझकर वह इन अपायों को निमन्त्रण नहीं देता पालन करना पडता है। यह मय गुरुजनों का पर कर्तव्य पथ में वह इनकी पर्वाह नहीं करना । भय है। इसे भक्तिमय मानकर उपादेव मानता ___प्रभ-यदि योगों के सामने कोई विषधर किसी सेंढक को पकड़ना चाहता हो तो क्या उचित है ? योगी व्यावश सो को रोकेगा, ऐसी अवस्था में उत्तर-इस भय मे माता पिता की मात वह विषधर सर्प योगी को काट स्वायगा। योगी कारण नहीं है किन्तु धन छिनने का निकाले जाने का दु ख कारण है, इसलिये इसे भक्तिमय दयालु होने के कारण सर्प को भार तो सकेगा नहीं कह सकते. तब यह भक्तिमयके समान उपा नही, इसलिये अपने प्राण दे देगा, क्योंकि यह देय कैसे हो सकता है ? यह अपायभय है। " मृत्यु से निर्भय है। अगर वह सर्प को नहीं रोकना है तो समझना चाहिये कि वह मृत्यु से यद्यपि भक्तिमय उपयोगी है सद्गुण है डरता है तब योगी नहीं है। परन्तु प्रश्न यह है परन्तु ऐसा भी अवसर आता है जब यह कर्तव्य किएमी अवस्था में योगो कितने दिन जियेगा ? में बाधक बन सकता है उस समय यह हेय है। उत्तर-योगी क जीवन का ध्येय है विश्व जैसे माता पिता की कोई हानिकर हड़ है और में अधिक से अधिक सुखवृद्धि करना। अगर भक्तिवश उनकी हठ पूरी की जाती है। माता पिता आर्थिक नति या ऐसी कोई हानि न पहुंचा उसे यह मालूम हो कि इस सर्प को मारने से सकते हो जिससे इसे अपायमय कहा जा सके, सर्प के समान चैतन्य रखनेवाले अनेक प्राणियों तब यह भक्तिमय तो होगा पर उपादेय न होगा। की हिंसा रुक सकती है तो वह दयालु होने पर भी सर्प को मार सकता है। पर सर्प और मेंढक यह भक्तिमय का दुरुपयोग कहा जायगा । के मामले में वह उपेक्षा भी कर सकता है क्योकि इसी प्रकार देव गुरु या शास्त्र का भय है इस प्रकृति के राज्य में सब जगह 'जीवो जीवस्य जो कि भक्तिमय है। वह अगर सत्य और अहिंसा जीवनम' अर्थात प्राणी प्राणी का जीवन है, यह के पध में या कल्याण के पथ मे बावक होता नियम काम कर रहा है। जहाँ शिक्षण का प्रभाव हो तो वह भी हेय हो जाएगा। साधारणतः पडता है वहाँ तो इस नियम का विरोध कुछ भक्तिमय प्रन्या है पर उसका दुरुपयोग रोकना असरकारक रहता है पर जहाँ शिक्षण का कोई चाहिये। रभाव नहीं पडना वहाँ उपेना ही अधिक सम्भव विरक्तिमय (मिचं डिडो)- पाप कार्यों है। मनुष्य को सिखाकर उस पर संस्कार डालमे विरकिहोने से जो भय होता है वह विरक्षिा कर या कानून का भय दिखाकर उसके स्वभाव भय का त्यागमय है । हिंसा का भय, चोरी का पर कुछ स्थायी सा अंकुश रक्खा जा सकता है
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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