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________________ फिर धर्मसंस्था में किसी एक व्यक्ति की लोगो के मनमें होते हैं जिनने धर्मसंस्था के इतिप्रधानता का नियम भी नहीं है धर्मसंस्था मे एसे हास का और उसके वास्तविक स्वरूप का ठीक अनेक महामानव होजाते हैं, जिनके तर्कबल विचार नहीं किया होता है इसलिये उसके विरोधी और अनुभवबल के कारण परम्परा की विचार- बनजाते हैं। पर कुछ लोग ऐसे हैं जो धर्म के धाराएं काफी बदल जाती है या सुधर जाती परम समर्थक होनेपर भी कुछ भ्रमों के कारण हैं। हरेक मनुष्य को इन सब की परीक्षा करके धर्मसमभाव से दूर हट जाते है। उनकी धर्मधर्मसंस्था का उपयोग करना चाहिये। अगर परीक्षा की कसौटी ही गलत होती है, कोई कोई कोई धर्मसंस्था न जचत्ती हो तो दूसरी ले लेना अपने धर्म को इसलिये महान कहने लगजाते हैं चाहिए, अगर ज्यादा बुद्धि वैभव हो तो सुधार कि उसमें त्याग का प्रदर्शन यहुत ऊंचे दर्ने का करना चाहिये । यदि इतने से भी काम न चले है, अनेक प्रकार के शारिरिक कष्टो का बबण्डर तो दूसरी संस्था खड़ी कर लेना चाहिये या कर- खड़ा कर दिया गया है, अहिंसा की बड़ी ची वाना चाहिये। इतनी स्वतन्त्रता के होते हुए व्याख्या की गयी है अथवा उसका क्रियाकाण्ड व्यक्ति प्रधानता के कारण धर्मसंस्था मात्र का विशाल है, इत्यादि। धर्मसंस्था की तरतमता नाश नहीं किया जासकता। जानने के लिए ये सब विचार ठीक नहीं है। कुछ लोग धर्मसंस्था का विरोध बड़े विचिन्न केवल ऊची चातें लिखने या कहने से कोई तरीके से करते हैं। वे किसी युगबाह्य धर्मसंस्था धर्मसंस्था अंची नहीं होजाती जब तक कि उसकी से तो चिपटे रहते है पर युगानुकुल धर्मसंस्था वा व्यवहार में उतरने लायक न हो, मनोवैज्ञाका विरोध करते हैं । पर चूंकि वह समर्थ होती ! है इसलिये उसका विरोध कर नहीं पाते तब वे " ज्यवहार में आनेपर जगत की स्थिति सोक ठीक धर्मसंस्था मात्र की बुराई करने लग जाते हैं। रूप मे न बनी रहती हो। और सबको छोड़कर यगानरूप धर्म . इस प्रकार धर्मों के विषय में अनेक तरह विरोध पहिले करते हैं। डौल ऐसा करते हैं कि के भ्रम है। इन भ्रमा को दूर करने के लिये इसे मानों उन्हें धर्मसंस्था मात्र से विरोध है और पाच बातो का योग्य विचार करना चाहिये। इसीलिए वे युगानुरुप धर्मसंस्था का विरोध कर १-धर्मशास्त्र की मर्यादा (धर्मान रामो ) रहे हैं। उनमें इतनी हिम्मत नहीं होती कि वे यह २-उचित परिवर्तन (धिन्न भुगे) कहदे कि यह नई धर्मसंस्था असत्य है और ३-व्यापक दृष्टि ( कोलको ) पुरानी या हमारी धर्मसंस्था हो सत्य है । ये मम्मी ४-अनुदाग्ना के संस्कारों का त्याग । (नो. हैं, हो सकता है कि उनका दम्भ इतना गहरा हो भयो दम्पो मिचो) कि उन्हें भी उसका पता न लगता हो। ऐसे लोगों -मजता की उचित मान्यता ( पुमिंगो से जब कहा जाता है कि यदि तुम धर्मसंस्था भिन्न गयो) मान को खराब समझते हो तो कम से कम १-धर्मशास्त्र की मर्यादा-सभी धर्म सन्य अपनी पुरानी युगवाह्य धर्मसस्था का तो पिण्ड अहिंसा शील त्याग सवा आदि का उपदेश देते बोड़दा तब था नो वे चुप रहजाते हैं या " हे हे" हैं और सभी धर्मों का अंय जन समाज को करने लगते है। ऐसे लोगो का धर्मसंस्था विरोध समाचार में आगे बढ़ाना है। अगर साग जगत कोई मूल्य नहीं रखता। सदाचारी प्रेमी सेवानिव हो जाय तो जगन में ' धर्मसंन्या के विषय में ये सब भ्रम उन दुग्व ही न रहे। शकृतिक दम्ब भी घट जाँच
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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