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________________ हराएका [ १७१ । - - - - - - - - थी ? और कहां ये खानपान के नियम ! इन लिये ही माना जाना चाहिये जितने समय वे दोनों में कोई सम्बन्ध न होने पर भी इनका अछ तता का काम करते हो। स्नानादि से शुद्ध कैसा विचित्र सम्बन्ध जोड लिया गया है। सच होनेपर उनको अछ त मानना मृढता है। फिर वात तो यह है कि इसमे अहंकार की पूजा के जो अछतता का काम करे वही अछ,न है न कि सिवाय और कुछ नहीं है। मनुष्य धर्म के नाम सारा कुटुम्ब या जाति। आज तो होता यह है पर मदोन्मत्तता की या खुना के नामपर शैनान कि जिसकी जाति पछत नहीं कहलाती, वह की पूजा कर रहे हैं। कैसा भी घृणित क्यों न हो वह अछूत न माना ___ मनुष्य-जाति की एकना को नष्ट करने वाले आयगा, और जिसकी जाति अछूत कहलाती है ये आत्मघाती प्रयत्न यहीं समान नही हो जाते, वह कैसा भी स्वच्छ हो वह अछूत माना जायगा किन्तु वे छुआछूत के रूप में एक और भयकर वह किसी भी हालत में स्पृश्य नहीं हो सकता। रूप बतलाते हैं। अछूतता के लिये अगर वहाने इस अन्धेरशाही का स्वच्छता के साथ कोई बनाये जाय तो वे ये ही हो सकते हैं एक तो सम्बन्ध नहीं है। आचार-शुद्धि के लिये दुसंगति का बचाव, दूसग . कुछ लोग अछूत कहलानेवालों के शरीर स्वच्छता की रक्षा का भाव । पहिला कारण यहा को ही अशुद्ध बता दिया करते है। परन्तु शरीर बिलकुल नहीं है, क्योंकि जिन मद्यमांस-भक्षण में शुद्धि-अशुद्धि का विचार करना ही व्यर्थ है। आदि कार्यों से बचने के लिये छतता का सभी मनुष्यों के शरीर मे हाड मास रक्त होता समर्थन किया जाता है. उनका सेवन पश्य है और ये चार्ज कभी शुद्ध नहीं होती। हा. कहलाने वालों में भी है। अनेक प्रान्ता में ब्राह्मण रोगियों का शरीर अमुक दृष्टि से अशुद्ध और क्षत्रिय वैश्य इन वस्तुओं का सेवन करते हैं। स्वस्थ मनुष्यों का शरीर अमुक दृष्टि से शुद्ध फिर भी ये अकून नहीं समझ जाते | और कहा जाता है परन्तु उस दृष्टि से तो अछूत कह लाने वाले भी परम शुद्ध हो सकते हैं और उच्च कहलाने वालो को उतना ही अबून समझते हैं कहलाने वाले भी परम अशुद्ध होसकते हैं। जितना कि अन्य शाकभोली समझते हैं इसलिये अगर मानसिक अशुद्धि की बात कही मासभक्षण आदि आचार की रात्रियों से बचने जाय तो वह भी व्यर्थ है, क्योंकि उच्च कहलाने के लिये यह अवनता नहीं है। अगर होती तो वालों की मानसिक अशुद्धि अछूत कहलानेवाला भी उचित न कहलाती, क्योकि मासभक्षी का की मानसिक अशुद्धि से कम नहीं होती। प्रेम स्पर्श करने से उसका दोप नहीं लगता, और न दया भक्ति विश्वसनीयता आदि में स्पृश्य और उससे पाच पापों में से कोई पाप होता है। हा, अस्पृश्यो की जाति जुनी जुदी नहीं होती। जो लोग हृदय से दुर्बल हैं वे खानपान में ऐसे कई लोग अछूत कहलाने वालों के साथ लोगों की संगति का बचाव कर सकते हैं । परन्तु किये गये दुर्व्यवहार को पूर्व जन्म का पाप कहबड़े बड़े भोजों में अथवा और भी ऐस स्थानों में कर स्वयं सन्तोप करते हैं तथा उनको भी सन्तुष्ट जहा मास भक्षण के उत्तजन की सम्भावना करना चाहते हैं। यदि इसे पूर्व जन्म के पाप का नहीं है, ऐसे बचाव की आवश्यकता नहीं है। फल भी मानलिया जाय तो इस तरह अज्ञात खैर, अछूतता के साथ तो इसका कोई सम्बन्ध पापफल देने का हमें कोई अधिकार नहीं है। यो नहीं है। तो हम बीमार पड़ते है तो यह भी पाप-फल है स्वच्छता की रक्षा का भाव भी अछूतपन परन्तु इसीलिये बीमार की चिकित्सा न की जाय, का समर्थक नहीं है। इस दृष्टि से अगर किसी एव सती के अपर गुण्ड़े आक्रमण करे तो यह को अचत माना जाय तो सिर्फ उतने समय के विपत्ति भी सती के पूर्वजन्म के पाप का फल है,
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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