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मत्यामृत
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इस वर्णमंत्र का मुख्य प्राण था आजीविका अमुक परिमाण मे हिसा हो जाय। शरीर तो की व्यवस्था, सो इस दृष्टि से तो उसका सर्वनाश जैसा ब्राह्मण का होता है वैसा शूद्र का होता है, भोगया है। श्राज ब्राह्मण कहलान वाले गेटी इसलिये एक दूसरे के हाथ का भोजन करने में पकाते हैं, झाइ लगाते हैं, दुकानदारी करते हैं, हिंसा अहिंसा की दृष्टि से कोई अन्तर नही पा सत्रिय कहलाने वाले खेती व्यापार करते हैं, सकता। अथवा कोई कोई प्रयापन आदि ब्राह्मण-वृत्ति आरोग्य का सो वर्णव्यवस्था से बिलकुल करते है वैश्य और शह कहलाने वाले भी चारो सम्बन्ध नहीं है। वह भोजन की जाति और य की आजीविका करते हैं। और जो लोग अपनी प्रकृति पर ही निर्भर है। तीसरी बात है इस वर्णव्यवस्था में नहीं मानते वे भी सब कुछ स्वच्छतो। सो स्वच्छता भी हर एक के हाथ से करते है। इस प्रकार वर्णव्यवस्था का जो असली बने हुए भोजन में हो सकती है। हो, यह हो
येय या, वह तो शताड़ियों से नष्ट हो गया है। सकवा है कि अगर अपने को मालूम हो जाय इस अवस्था में वर्णव्यवस्था की दुहाई देना व्यर्थ कि अमुक व्यक्ति के यहा स्वच्छना नही रहती ही है। पुराने जमाने में इस प्रकार का नियम तो हम उसके यहा भोजन न करेंगे। परन्तु अपने बनाने की कोशिश की गई थी कि रत्येक घर पाकर अगर वह स्वच्छता से भोजन तैयार मनुष्य को अपनी अपनी आजीविका करना करदे तो हमारी क्या हानि है ? अथवा अपने चाहिये, अगर न करे तो शासका से वह दराड. घर या अन्यत्र वह हमारे साथ बैठकर भोजन नीय हो, स्यामि सा न करने में वर्णसंकता करले नो इसमें कश अस्वच्छता हो जायगी। फैल जायगी अर्थात् वर्णव्यवस्था गडबड हो इसलिये स्वच्छता के नामपर भी वर्णमेद में सहजायगी।"
भोज का विरोध करना निरर्थक है। आज इस पकार की वास करता निर्वि- इस प्रकार सहभोज का विरोधी कोई भी बाद और निविरोध फैली हुई है सी अवस्था में कारण न होने पर भी लोगों के मन में एक अन्ध. यव्यवस्था की दुहाई देकर अहंकार और मूढना विश्वास जमा हुआ है कि अगर हम शूद्र के पी पासना क्या करना चाहिये । और अगर हाथ का खा लेगे तो शुद्ध हो जायेंगे। अमुक के परना भी हो तो उसे कर्मस मानना चाहिये कर्म हाथ का खालेंगे तो जाति चली जायगी। अगर में वर्सय ववस्या मानने की आवाज पुगनी है। सचमुच यह बात होती तो अभी तक हमारी
चर, विश्वस्था को जन्म से मानो या मनुष्यता कमी की चली गई होती । भैस का दूध कर्म से मानो, परन्तु उससा सम्बन्ध आर्थिक पीते पीते हम भैंस हो गये होते और गाय की योजना से ही है, सानपान और बेटीव्यवहार से दूध पीते पीते गाय हो गये होते। अगर पशुओं ना।
का दूध पीने पर भी हम पशु नहीं होते तो किसी मानपान कतिपय में हम तीन की मनुष्य के हाथ का खा लेने सहम उसकी जाति रिचार करना चाहिये- अहिंसा, प्राग्य, और के कैसे हो जायंग ? हमारी जानि कैसे चली मन्टना। भोजन मान हो जिसके तैयार करने जायगी। गं वाहमा दी। इस दृष्टि से मांसादिक आश्चर्य तो यह है कि जो लोग मासभनी पात्याग करना चाहिये। इसका वर्णव्यवस्था भी भोजन में जाति-पाति का खयाल करत ग गोट सम्पनी , गोकि प्रत्यक वर्ग का है। ये यह नहीं सोचते कि जो कुछ वे गाते हैं मागी म प्रकार हिसारहित मानन कर सकता यह इतना अपवित्र है कि उसस अधिक अपवित्र *प्रनि का परमा निया नहीं है कि अमुक दूसगै यस्तु नहीं हो सकती। इस प्रकार कहा तो
भोजन में पन्यवस्था जो कि एक श्रार्षिक योजना म्प