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________________ [ १६६ विवाहासे ये घटनाएँ और बढ़जायगी !" पर यह मे धर्मशास्त्रों में बहुत से विधिविधान मिलते हैं, भूल है, यह पाप एकही देश के भीतर भी हो इसलिये बहुत से लोग धर्म के समान इसे भी रहा है। इसका अन्तराष्ट्रीय विवाह-पद्धति के समझने लगे हैं। सच पूछा जाय तो धर्म के प्रचार से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसके हटाने के साथ इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। वृत्तिभेद से लिये सब सरकार को मिलकर सम्मिलित प्रयतन बना हुआ जातिभेट एक समय की आर्थिक करना चाहिये, तथा इस प्रकार के लोगों में दमन योजना है। के लिये विशेष कानन और विशेष प्रयत्न की बामण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद ये चार जम्मत है। भंत सभी देशो में पाये जाते हैं, क्योंकि शिक्षण, राष्ट्रीय संस्कृति की विभिन्नता के कारण रक्षण, वाणिज्य और सेवा की आवश्ययता सभी दाम्पत्य जीवन के अशान्तिमय हो जाने की बाधा दशा को है। परन्तु इनके नामपर जैसा नाति. भी यताई जा सकती है। परन्तु इसका उत्तर वर्ण भेट भारतवर्ष में बना वैसा अन्यत्र नहीं। यहाँ भेतकं प्रकरण में दे चुका है। यहां इतनी धात पार्थिक योजना की दृष्टि से बनाये गये इन संघो फिर कही जाती है कि राष्ट्रीय जातिभेद मिट जाने का सम्बन्ध रोटी-बेटी व्यवहार से भी हो गया पर एक तो सहमति की विभिन्नता भी कम हो है, धार्मिक क्रियाकाटो से भी होगया है, परलोक जायगी, दूसरी बात यह है कि यह सब व्यक्तिगत की ठेकेदारी से भी हो गया है। प्रश्न है । दोनों को पारस्परिक अनुरूपता का जिस समय यह वर्णव्यवस्था की गई थी, विचार कर लेना चाहिये, तथा एक दूसरे की मनो- उस समय इसका यही लक्ष्य था कि समाज में वृत्ति से परिचित हो जाना चाहिये । इस प्रकार श्रााधक सुव्यवस्था और शान्ति हो । जो जिस राष्ट्रीयताकी भंदक दीवालोको गिराने के लिये वह काये के योग्य है वह वही कार्य करे तथा अनुचित वैवाहिक सम्बन्ध भी अधिक उपयोगी हो सकता प्रतियोगिता से धन्धों को नुकसान न पहुंचे और है, और इससे मनुष्यजाति एक दूसरे के गुणों को न बेकारी की समस्या लोगों के सामने आये। शीघ्रता से शाम कर सकती है। सैकडो वर्षों तक इस व्यवस्था से भारतीयों ने इस प्रकार विश्वकी शान्ति तथा उन्नति के लाभ उठाया । परन्तु पीछे से जब अकर्मण्य और अयोग्य व्यक्षियों की अधिकता होगई तथा इस लिये श्रावश्यक है कि राष्ट्रीयता के नामपर फैल व्यवस्था ने अन्य धार्मिक सामाजिक अधिकारी हुए जातिभेद का नाश करके मनुष्य जाति की तक को कैद कर लिया, तब इससे सर्वनाश होने । एकता मिद की जाय और व्यवहार मे लाई लगा। जाय। वर्णभेन के नाम से प्रचलित इस वृत्तिभेद बडे बडे देशा में प्रान्तीयता का भी विप का जाति के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, और न राष्ट्रीयना के विप के समान फैलता है यह तो मनुष्य जाति के विभाग करने का इसमें कोई और भी बुरा है। इसमे कट्टर राष्ट्रीयता का पाप गण है। रंग-भेद से तो फिर भी कुछ शारीरिक तो है ही, साथ ही मनुष्यता के साथ राष्ट्रीयता भेद मालूम होता है, तथा देशभेद में भाषाभेट का नाशक होने में यह दुहरा पाप है। आदि हो जाते हैं-यद्यपि इससे भी मनुष्यजाति वृत्तिभेट ( कालो अको)-अभी तक जो के भेद नहीं हो सकते-परन्तु वृत्तिभेद से तो जातिभेट के रूप बतलाये गये हैं, उनके विषय में इतना भी भेद नहीं होता। एक ही वंश में पैदा धर्मशास्त्रों में कोई विधिविधान न होने से वे घम होनेवाले अनेक मनुष्यो की योग्यता में इतना के बाहर की चीज समझे जाते हैं। परन्तु आजी- अन्तर होता है कि उनमें कोई ब्राह्मण कोई क्षत्रिय विका के भेद से जो जातिमेट बना, उसके विपय कोई वैश्य और कोई शूद्र कहा जा सकता है।
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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