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________________ - - - - - - नही है वहा वास्तविक समभाव नहीं आ सकता, म्यर के वचन उनके लिये गुर का काम देसकते हा ! समभाव के दर्शन की अति होसकती है। है। फिर भी सद्गुरु मिलजाय तो अन्या । धर्म-समभाव में धर्म के नाम पर चलते हुए बुरेसे योगी के भी गुरु होसकता है । शिष्टाचार और बुरे क्रियाकाड आदि भी वह मानने लगेगा कृतज्ञता के कारण वह पूर्णअवस्था के गुरु को मनुष्य और पशु के बीच जो उचित भेद है वह गुरु मानता है, हा, नये गुरु की उसे आवश्यकता भो नष्ट हो जायगा इस प्रकार के अतिवादी नहीं होती । यद्यपि योगियों में भी तरतमता ममभाव से कोई साधक योगी नहीं बन सकता। होती है, विवेक, धर्म, जाति, व्यक्ति, अवस्थासमयोगी होने के लिये निरतिवादी समभाव चाहिय भाव सत्र योगियों में पर्याप्त मात्रा में होने पर जो कि विवेक के बिना नहीं हो सकता। योगी भी उनसे अमुक अंश से न्यूनाविकता होती है. होने के लिये विवेक पहिली शर्त है। फिर भी कल्याण पथमें वे इतने बढगये होते है कि उन्हें नया गुरू नहीं बनाना पड़ता। कदाचित विवेक (अंको) जनसधा की दृष्टि से किये गये संगठन के लिये अच्छे बुरे का कल्याण अकल्याण का ठीक नेता की आवश्यकता होसकती है। जनसेवा की ठीफ निर्णय करना 'विवेक है । एक तरह से दृष्टि से पूर्व गुरुको वह गुरु भी मानता है । इस पहिले सत्यष्टि अध्याय में इसका विवेचन हो विषयको स्पष्ट रूप से समझने के तिये निम्न. गया है। विवेकी में तीन बातें होना चाहिये लिखित सूचनाएँ ध्यान में रखना चाहिये। नि.पक्षता, परीक्षकना, और समन्वय-शीलता । १-योगी को गुरु की आवश्यकता नही भगवान सत्य के दर्शन करने के लिये इन है। नीन गुणों की आवश्यकता है । भगवान सत्य के -पूर्व गुरु को वह कृतज्ञता की दृष्टि से दर्शन हो जाने का अर्थ है विवेकी हो जाना। गत मानता है, अनुभव और विशेप प्रतिमा की इसलिये उक तान गुण विवेकी होने के लिये प्रिसे मी ग मानता है, जनसेवा में विशेष जरूरी है। उपयोगी या प्रभावशाली होने से भी गुरु मानता उक्त तीन गणों के प्राप्त हो जाने पर है। मनुष्य अश-साधक योगी हो जाता है और योगी अन्य लोगो को जनसेवा में किसी भी तरह की मूढता कर्तव्याकर्तव्य के उपयोगी होने से नेता मानलकता है । निर्णय मे बायक नहीं रहती। फिर भी चार ४-योगी न होने पर भी विवेकी मनुष्य तरह की मूढता मां का कुछ सष्ट विवेचन करना ग क विना कान चलासकता है। जरूरी है। क्योंकि योगी बनने के लिये इस प्रकार को मूढनाओं का त्याग आवश्यक है। ! साधारणत मनुष्य को गुरु मिलजाब तो सौभाग्यकी बात है। चार मूडमाए निम्न निखित है-१ गुरु- ह-अगर योग्य गुरु न मिले तो गन्शून्य मूढमा २-शास्त्र मूढता, ३-देव-मूढ़ता जीवन ही अच्छा। गुरु या गुरु को गुरखनालन ४-लोक मूढता। ठीक नहीं । गम रहित होना अपमान या बदगुरु मढता (तारूनो) नामी की बात नहीं है। ओ पूर्ण योगी वनगया है उसका काम तो इन बातो का विचार कर गुरु मानना गुरु के बिना चल ही सकता है तथा और भी चाहिये। बहुत लोगों का काम गुरु के बिना चल सकता गुरु (तार) कल्याण के मार्ग में जो है। विवेक ही उनका गुरु है, या युगानुरूप 'पैग- अपने से आगे हैं और अपने को आगे की
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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