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________________ पांचवा अध्याय (छुनङ्ग होपयो) लक्षण दृष्टि [ भिम्पो लंको] जो योगी बनगया है वही पूर्ण सुखी है। समाज ऐसे हैं जिन में जाति-पॉति का विचार पूर्ण सुग्बी बनने के लिये हरएक व्यक्ति के लिये होता ही नहीं है, वे किसी भी जाति के हाथ का योगी बनने का प्रयत्न करना चाहिये जो चार खाते है, कही भी शादी करते है. पर विवेकी तरह के योगी बनाये गये हैं उनमें से किसी भी विलकुल नहीं होते। रिवाज के कारण या अच्छे तरह का योगी हो उसम ये पाच गण अवश्य पुरे की अक्ल न होने के कारण वे जाति-समहोना चाहिय । अथवा योगी के ये अवश्य होते मावी या धर्मसमभावी बन गये हैं । वंश-परम्परा है--१ विवेक ( अमूढ़ता ) २-धर्मसमभाव, से सत्यसमाजी बननेवाला विवेकहीन होकर भी ३-जाति समभाव,४-व्यक्ति समभाव ५-अवस्था धर्म जाति-समभावी होगा। ऐसे व्यक्तियो को समभाव। अंश साधक कहा जाय या अर्ध-साधक ? साधारणत मनुष्य इदम योगी नही उत्तर विवेकहीन व्यक्ति न तो श साधक बनसकता। उसे साधना करना पड़ती है। पहिले होता है न अर्धसाधक । वह साधक ही नहीं है। वह अंश साधक होता है फिर अर्ध साधन होता वंशपरम्परा से कोई प्रमाणिन सत्यसमाजी नहीं है फिर यह साधक होता है। बनसकता। माणित वह तभी होगा जब समयश साधक (अंगसाधक ) मे विवेक मदार होने पर समझपूर्वक सत्यसमाज के तत्वो होता है और विवेक होजाने से कुछ अंश में को स्वीकार करेगा। मदि-वश जो समभावी बनते समभाव भी श्राजाना है।। है उनके सममाव का व्यावहारिक मूल्य तो है ____ प्रर्ध मायकशिक सायक] मे विवेक, पर आध्यात्मिक मूल्य नहीं है, वे कोई भी धमममभाव तथा जातिसमभाव होता समाजी हो साधक की पहिली श्रेणी में भी नहीं श्रमुक प्रश मे व्यक्तिसमभाव भी होता है। आ सकने । दूसरी बात यह है कि विवेकहीन अवस्था में उनके भीतर जाति-समभाव या धर्मअमाधक (म साधक) वह है जो पाचों गग्गी की साधना करता है और अमुक अंश में कितना ही होगा कि विपमभाव को पागर जापाचा समभाव आ भी नहीं सकता । अधिक से अयस्वाममभावी भी होता है। फिर भी उसमे कुछ यागी रहनी । उसके दूर होते हो वह योगी कानवाले कुन कार्य न सत्र के साथ रोटी जाता। रेटी व्यवहार करने पर भी विमभाव रह सकता है विषममात्र के चिन्ह वृणा और अभिमान .. प्रत्येक मनुष्य को कम से कम अंश साधक गटी-ग्रेटो-व्यवहार का बन्धन न होने पर भी नाना चाहिनना भो न हो तो एक तरह से रात, रग आदि के नामपर जातिभर 'श्रा मी मनुष्यता निकन ममझना चाहिये। सत्ता धार्मिक सम्पदायों में समभाव रहने श-विवेक के बिना भी वर्ग-सममाय पर भी सामाजिक सम्पदा में गैनि ग्विाज में "ौर पर मनमाने माना है। कोर्ट को विषमभाव आ सका है। इसलिये माविक
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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