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धारकार्ड
संन्यास और सारस्वत | उसी प्रकार हठयोग लेकर अगर कोई ध्यानयोगी बनेगा तो वह
आदि में भी मन एक तरफ लगाया जाता है संन्यासयोगों समझा जायगा। इसलिये ध्यानयोग के भेदों में इसका भी एक हां। यह भी होसकता है कि हठयोगी की स्थान होना चाहिये । जैसे सिर्फ भक्ति से कोई एकाप चित्तवृत्ति किसी देव की भक्ति के कारण भक्ति योगी नही होता उसी प्रकार सिर्फ हठ- हो। उसकी परामनोवृत्ति भक्तिमय हो, भले योग से उसे योगी न मानाज्ञाय पर संयम की ही बाहर से भक्ति की कोई क्रिया न दिखाई सीमा पर पहुंचा हुआ कोइ योगी भक्ति श्रादि देती हो, ऐसी हालत में वह भक्तियोगी कहलाकी तरह हठयोग आदि का अवलम्बन ले तो यगा । अगर उसकी एकाग्रता तत्वविचार अन्वेध्यानयोग में एक भेद और क्यों न होजाय? पण आदि के लिये है तो वह विद्यायोगी अथात्
_ सारस्वतयोगी है। इसप्रकार उसका अलग भेट उत्तर-योगी चार तरह के अवलम्बन
__बनाने की जरूरत नहीं है। लेता है इसलिये योगी जीवन के चार भेद हैं। कोई अवलम्बन मन प्रधान है कोई बुद्धिारधान,
यों तो दुनिया में सैकड़ी तरह के निमित्त
होसकते है जो योगी की दिनचर्या मे रमजायें, किसीमें दोनो शिथिल हैं किसी में दोनों पचत ।
पर वे सब मन और बुद्धि की वृत्ति की समानता १-भक्तियोग~मनारधान
से चार भागों में विभक्त होजाते हैं इसलिये विद्यायोग --- बुद्धिप्रधान
चार तरह के योग प्रताये गये हैं। ३- संन्यासयोग-बुद्धिमन शिथिल होकर- प्रत्येक प्राणी को योगी बनना चाहिये। समन्वित
वृद्धावस्था या अन्य किसी विशेष कारण से ४--कर्मयोग --- बुद्धमन प्रबल होकर
मनुष्य ध्यानयोगी बने, पर साधारणतः कर्मसमन्वित।
योगी बनना चाहिये । विश्व में जितने अधिक हठयोग मे बुद्धिमन शिथिल होकर सम- कर्मयोगी होंगे विश्व उतना ही अधिक विकसित न्वित होते हैं इसलिये हठयोग के कार्यक्रम को और सुग्यमय होगा।