SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्यामृत - वेदन २४ ) इसरकार ये परकृत सदु ख कह- तरह के परकृत फलदुप हैं उनमें काफी विचार लाये। यहा सहिष्णुता अत्यधिक आवश्यक है से काम लेना चाहिये। जहा प्रतिरोध से काम प्रेम का भी काफी उपयोग है। बाकी उपाय गौण चलसकता है वहां कायरता से दरगमन न करना है। हा, ऐसे भी परकृत सदुःख होसकते है जहा चाहिये। हा। वीतरागभाव से दूरगमन किया टंड आदि दूसरे उपाय भी काफी मुख्यना से जासकता है। कोई दुर्जन अन्याय करेगा इसकाम दे सके। लिये उससे डरकर भागने की उम्रन नहीं है। हा. साधुता वीतरागता प्रादि के कारण उससे .. २५-३६-विश्वसुखवर्धन की दृष्टि से अपने । बचकर रहा जासकता है। सहिष्णुता की भी हाथों श्राघात आदि बारह तरह के कष्ट सहना सीमा का ध्यान रखना चाहिये। अगर हमार्ग स्वकृत सदुःस्व है। वास्तव में इन कठो से सहिष्णुना दूसरों में दुरभिमान पैदा करं अन्याय मनुष्य ऊँचे दर्जे का तपस्वी होता है । ध्यान को उत्तेजन दे तो परतिरोध या दण्ड में काम इतना रखना चाहिये कि नामादि के लोभ से कलाम स लेना चाहिय । कुछ न हो तो असहयोग तो किया व्यर्थ कष्ट न बढाये जायें नहीं तो ये तप मोघतप ही जासकता है यह भी एक तरह का दरड है। या मोघमात्रिक तप होजायेंगे। किमी महान सीमकार जापान लाव. विनय या शियाव्यक्ति को जीवन दान देने के लिये अपना खून चार कारन धारण कर सके उससे भी बचाना देना पडे, [आधात २५ ] सेवा में वेस्वाद भोजन चाहिये । यही बात सहवेदन के बारे में हैं । जिस करना पड़े [रतिविषय ६ ] भूखों रहना पड़, सहवेदन से न्याय का, सत्य फा. विश्वहित का, अविषय ३७] सेवा से उसका रोग लगने की कोई सम्बन्ध नहीं वह व्यर्थ है। इसी तरह बारह पूरी सम्भावना हो [ रोग २८] कफकर एक जगह तरह के स्वकृत फलदाय है। से निरर्थक कष्ट रहना पडे [गंध २६ ] काफी मिहनत करना पड़े. से बचना चाहिये। जिम तपस्या से जगत का [अतिश्नम ३०] संवा में लगे रहने से इष्ट वस्तुएँ कोई हित नहीं बल्कि मुन्न ही अधिक है ऐसे न मिले [ इष्टायप्ति ३ ] कुटुम्पियों को छोडना तपप फरदो से भी बचना चाहिये, अन्यथा पड़े [ इष्टवियोग ३२ ] दुर्जनों में या कष्टकर परि. यक तरह के प्रात्मयान कहलायेंगे ! स्थिति में रहना पडे [ अनिष्प्रयोग ३३ ] दूसर - इसीप्रकार इत्तीस तरह के लोग तो कम योग्यता खनेपर भी अंचे पदापर , पहुँच जाय किन्तु यह तपस्वी पदो की पोट दुद गय है। हर तरह बुरे है। ये दस के पान किये बिना छोटा कहलाता हुआ भी संवा करता रहे ही नहीं है किन्तु च के बीज भी हैं। आगे [लाघव ३४] सेवा का कार्य इतना विविध और और भी दुःख पैदा करते है। जब हम कोई बुरा विशाल करले कि उसे पूरा करने क लिय व्यत्र काम करना चाहे जिसका फल काफी दुन्य हो, होजाना पड़े [व्यग्रता ३५] सेवा कार्यों के उस बुरे कार्य के करने में भी जो कष्ट उठाना पड़ अपने हाथ से बुलाये गये कष्टा से दूसरे के कष्टा वे कर दुदुख कहे जागे । जैसे कोई म सहानुभूति जाग्रत होना [ सहवेदन ३६] इस श्रादमी वयो की अधेरी रात मे चांग करने प्रकार ये बारह स्वकृन सददुख हैं। इन्हे सहना जाय, और बीच में वर्षा के कारण या जमीन चाहिये । इसमे सहिष्णुता ही नात्यावश्यक है। ऊबड़-खाबड होने के कारण अंधेरे में काफी कष्ट ३७-s-मरकार छत्तीस तरह के सद- उठाय तो यह प्राकृतिक आघात नाम का दुदु म्य टुभव है उसी तरह छत्तीस तरह के अवीजदुग्च कहा जायगा । इसी तरह पाप की राह में गहया फलदु व है। इनमें जो बारह तरह के प्राक- तिक रीति से भून्नों मरने की, दुर्गन्ध आदि सहने निक दुम है उनका उपाय तो परतिरोध दूरगमन की, बीमार होने की, साथियों के मरने की, नौवन चिकित्सा और सहिष्णुना ही है। पर सौ बारह सकती है, ये सब दुव है । परतिरोध आदि
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy