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________________ - - - - - - - - - - - - - -- - हैं। इस प्रकार धर्मशास्त्र तो नित्यवाद का और हितकारी होते हैं। जो लोग परिवर्तन के इस अनित्यवान का समान रूप में उपयोग करता है। मां को समझाते हैं उन्हें घर में विरोध नहीं दर्शनशास्त्र भले ही नित्यवाद था अनिलबाद में मालूम होता वे परस्पर विरुद्ध मालूम होनेवाले से किसी एक को मिथ्या कहे परन्तु धर्मशास्त्र आचागे में समन्यय करके उनसे लाभ उठा सक्ते दोनों का सत्य के समान उपयोग करेगा. यह है। परन्तु जो परिवर्तन पर उपेक्षा करते हैं उन्हे धर्मशास्त्र और दर्शनशास्त्र का भेद हैं। इस बात में विरोध ही नजर आता है, वे इस इस प्रकार धर्मशास्त्र और दर्शनशास्त्र आदि विपय में विप्रमता और विगेय के अन्तर को ही को अलग कर देने से, अर्थात धर्मशास्त्र के सत्य नहीं समझते । विषमता तो नर और नागे में भी काफी है पर इससे उनमें विरोध सिद्ध नहीं होता। को दर्शनशास्त्र या अन्य किसी शास्त्र के सत्य पर ED की यह साधारण बात धर्म के विषय में अवलम्बित न करने से धर्मों का पारस्परिक भी अगर काम में लाई जाय तो सुधारक और विरोध बहुत शान्त हो जाता है। इसलिये धर्म त हा जाता है । इसालय धम- उदार बनने के माग में कठिनाई न रहे। शास्त्र का स्थान समझलेना चाहिये । और इस विषय का भ्रम दूर कर देना चाहिये। एक जमाने में समाज की आधिक व्यवस्था , प्रश्न-धर्मशास्त्र का स्थान के लिये वर्ण-व्यवस्था की जरूरत पड़ी तो धर्म में धर्शनशास्त्र तया और दूसरे शास्त्री से सम्बन्ध वर्ष-व्यवस्था को स्थान मिलगया उससे समाज ने काफी लाभ उठाया, लोग आजीविका की रखनवाले झगड़े अवश्य शान्त हो जॉयगे, पर चिन्ता से मुक हो गये, परन्तु इसके बाद बस. धर्मों में इतना ही विरोध नहीं है। प्रयत्ति निवृत्ति, वस्था में जातीयता का रूप धारण करके स्थान हिंसा अहिंसा, चरण अवर्ण तथा और भी आधार पान विवाहादि सम्बन्धमे अनुचित बाधाएँ डालना शान्त्र सम्बन्धी भेद है। इन बातो में प्राय सभी शुरु कर दिया, जाति के कारण गुणहीना को परस्सर विरुद्ध हैं तव धर्मसमभाव कैसे रह पूजा होने लगी. उनके अधिकागे से गुणी और सकता है। निरपराध पिसने लगे. सत्र वर्ण व्यवस्था को नष्ट उत्तर-इन बातोको लेकर जो धर्मो मे विरोध कर देने की आवश्यकता हुई। इस समयानुसार मालूम होता है उसक कारण हैं उचित परिवर्तन परिवर्तन में विरोध किस गत का १ वैदिक धर्म का प्रभाव और व्यापक दृष्टि को कमी। पहिले को वर-व्यवस्था और जैनधर्म का वर्ण-व्यवस्था. धर्म-विरोव-भ्रम इटान के पाच कारण वताय है विरोध, ये दोनों ही अपने अपने समय में समाज उनमे से दूसरे तीसरे के प्रभाव से आचार-विप- के लिये कल्याणकारी रहे है। इसलिये धम-समथक नम होते हैं। भावो को उचित परिवर्तन के लिये सदा तैयार २-उचित परिवर्तन-ऋतु के नुसार जैसे रहना चाहे और परिवर्सन पर उपेश कभी न हमे अपने रहन-सहन भोजन आदि में कुछ परि- करना चाहिये । वर्तन करना पड़ता है उसी प्रकार देशकाल - विशाल दृष्टि-वष्टिमी विकलता या सकु. लने पर सामाजिक विशनों में परिवर्तन करना चितना से किसी चीज का पूरा रूप या पर्याप्त पड़ता है। इसलिये एक जमाने मे जो विधान नहीं दिखता. इसी से हिंसा अहिंसा और सत्य होता है दूसरे जमाने में वही विधान असन्य प्रत नियत्ति के विरोव पैदा होते हैं। सभी धर्म बन जाता है इसलिये एक जमाने का पने दूसरे अहिंसा का प्रचारमा हैं परन्तु अहिंसा का पूरारूप समाने के धर्म से अलग हो जाता है। परन्तु हरएक प्रादमी नही पालसकता और न हर अपने अपने समय में दोनों ही समाज के लिये समय अहिंसा का वायरूप एकसा होता है। इस.
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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