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लिये मैं कुछ नहीं करता। सच तो यह है कि जो हो या दो, सदाचार की आवश्यकता और रूप में तत्वदर्शी है उसको साचार का फल दूढने के इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। अगर जगत मूल लिये स्वर्ग-मोक्ष की भी जरूरत नहीं होती, वह मे एक है तो इसका यह अर्थ नहीं कि हम किसी तो समाचार का सुफल यही देख लेता है, जब को तमाचा मारें तो उसे न लगेगा अथवा हमें ही वाहर नहीं दिखाई देता तर भीतर देख लेता है। लगेगा। द्वौत हो या अद्वत, हिंसा-अहिंसा आदि
और जो तत्वदर्शी नहीं है वह मोक्ष के श्रानन्द विवेक उसी तरह रखना होगा जैसा आज रक्खा को समझ ही नहीं सकता। उसे स्वगे और मोक्ष जाता है। इसलिये द्वैत-अद्वत के दार्शनिक प्रश्न में से किसी एक चीज को चुनने को कहा जाय का धर्मशास्त्र से कोई सम्बन्ध नहीं है। द्वैत या तो वह स्वर्ग ही चुनेगा। हा, मोक्ष के दर्शको अद्वैत मानने से मनुष्य धर्मात्मा सम्यग्दृष्टि ठीक न समझकर साम्प्रदायिक कारक मार कुछ आत्तिक और ईमानदार नहीं बनता। भी कहे। मतलब यह है कि मुक्ति के न माननेसे
हो, द्वैत या अहत जो कुछ भी बुद्धि को भी सटाचार का पाकर्षण नष्ट नहीं होता इस- जच जाय उसका उपयोग धर्मशास्त्र अच्छी तरह लिये धर्मशास्त्र मुक्ति के विषय में तटस्थ है। कर सकता है । अद्वैत का उपयोग धर्मशास्त्र में
द्वैताद्वैत (अकोकनो)-द्वैत का अर्थ है विश्वप्रेम के रूप में हो सकता है। दरैत का जगत दो या दो से अधिक तत्वों से बना हुआ उपयोग आत्मा और शरीर को भिन्न मानकर है। जैसे पुरुष और प्रकृति, जीव पुद्गल धर्म शारीरिक सुखों को गौण बनाने में किया जा अधर्म काल आकाश, पृथ्वी जल अग्नि वायु समता है। आकाश काल दिशा आरमा मन आदि। ये सव
दर्शन के दो परस्पर विरोधी सिद्धान्त धर्म द्वैतवाद हैं। अद्वत का अर्थ है जगत का मूग
शास्त्र मे एक सरीखे उपयोगी हो सकते हैं और एक है जैसे ब्रह्म । दर्शनशास्त्र की यह गुस्थी अभी ।
सत्य अहिंसा की पूजा के काम में आ सकते हैं। तक नहीं सुलझी । भौतिक विज्ञान भी इस विषय यह धर्मशास्त्र से दर्शनशास्त्र की भिन्नता का मे काफी प्रयत्न कर रहा है। बहुन से वैज्ञानिक सचक है।। मोचने लगे हैं कि तत्व वानवे नहीं है एक है फिर
नित्यानित्यवाद ( पुलोहुलोषादो )-वस्तु भले ही वह इयर हो या और कुछ। अद्वैत की नित्य है या अनित्य, यह वाद भी धर्म के लिये मान्यता मे मूल तत्व चेतन है या अचेतन, यह
यह निरुपयोगी है। अगर नित्यवाद सत्य है तो भी प्रश्न ही व्यर्थ है। चेतन का अर्थ अगर ज्ञान- हत्या करना हिंसा है। अगर अनित्यवाद या जानना विचार करना आदि है तो उस मूल क्षणिकवाद सत्य है तो भी यह कहकर खून म अवस्था में यह सत्र असभव है इसलिये अद्वैत नहीं किया जा सकता कि वह तो हर समय न की मान्यता में मूलतत्व अचेतन ही रहेगा। हो रहा था मैंने उसका खून किया तो क्या " अथवा बीजरूप में चेतन और अचेतन दोनो ही गया, इसलिये नित्यवाद अनित्यवाद का आत्म उसमें मौजूद हैं इसलिये उसे चैतन्याचोतन्यातीत शुद्धि या सदाचार के साथ कोई सम्बन्ध नह कह सकते है । द्वैत अद्वैत को यह समस्या सर- वैठता । हां, भावना के रूप में दोनों का उपयो लता से नही सुलझ सकती, पर धर्मशास्त्र को किया जा सकता है। नित्यवाद से हम अम इसकी जरा भी चिन्ता नहीं है। यह समस्या के अमरत्व की भावना से मृत्यु से निर्भय ह सुलझ जायचो धर्मशास्त्र का कुछ लाभ नहीं और सकते हैं और अनित्यवाद से भोगो की या नसलम तो कुछ हानि नहीं।' जगन मूल में एक की नणमगुरता के कारण इससे निर्मोह हो ।