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प्रास्ताविक
.सत्यामृत का दूसरा नाम मानवधर्म शास्त्र है। ये दोनों नाम, सार्थकता रखते हैं। सब शास्त्रों का सम्मान रखते हुए भी इसमें किसी शास्त्र को माधार न बनाकर युगसत्य को ही श्रावार बनाया गया है, और सार्वत्रिक और सार्वकालिक दृष्टि से भी सत्य का जितना दर्शन सम्भव है उतना किया गया है। फिर भी सत्यामृत का यह सन्देश है कि मनुष्य में शास्त्र मूदता न होना चाहिये । सब से बड़ा शास्त्र यह खुला हुमा संसार है या सब से बड़ा शास्त्र विधक है। कोई भी शास्त्र, जिममें सत्यामृत भी शामिल है, इस खुले हुए महाशास्त्र संसार को पढ़ने में 3 विवेक रूपी शास्त्र के पन्ने खोलने में मददगार है। जब सत्य में और शास्त्र में विरोध मालूम हो नम सत्य की वेदी पर शास्त्र का बलिदान करना चाहिये, शास्त्र की वेदी पर सत्य का बलिदान नहीं । बहुत से लोग अपने प्राचीर शास्त्रों के लेखन के विरुद्ध जब वैज्ञानिक सोनों को पाते हैं तब वे विज्ञान को ही अधूरा कहकर मजाक उड़ाते हैं, विज्ञान की विकास-शीलता को संशय भनिय मादि कहकर उपेक्षा करते है, अथवा मडी खीचतान करके उस बात को शास्त्रों में से ही निकालने की कुचेष्टा करते हैं, या शास्त्र की वेदी पर सस्य का बलिदान है । सत्यामृत इस शास्त्रमूढ़ता का विरोधी है । वहा से बड़ा शास्त्र मी सत्येश्वर की पदधूलिका एक कणमात्र है, मस्यामृत इस बात को मुकाए से स्वीकार करता है और स्वीकार करता इस बात को भी कि, सत्य के अनुकूल न रहने पर शास्त्र का कायाकल्प कर देना चाहिये या विसर्जन कर देना चाहिये।
मानवधर्म शास्त्र यह इसलिये है कि इसमें पृथ्वी नर के मनुष्यों को दृष्टि में रखकर विचार किया गया है अमुक राष्ट्र या अमुक नस्ल या अमुक वर्ग को प्रधानता नहीं दीगई है। उस सदारता की दृष्टि से यह मानवधर्म शास्त्र है।
कुछ व्यक्ति शायद यह भी कहेंगे कि । जैसे यह उदारता की दृष्टि से मानवधर्म शास्त्र है उसी प्रकार कदाचित् अनुदारता की दृष्टि से भी मानव में शास्त्र है क्योंकि उसमें मानव के हितको जिवनी प्रधानता दीगई है उतनी अन्य प्राणियों के हित को नहीं।"
इस कथन में तथ्य होनेपर भी उसकी कारणमीमासा ठीक नहीं है । मनुष्य को प्रधानता किसी पक्षपात के कारण नहीं दीगई है किन्तु प्रकृति ने 'जीवो जीवस्य जीवनम् , (जीब जीव का जीवन मा माहार है), इस नियम को अनिवार्य- पनादिया है। हिंसा के बिना कोई जीवित नहीं रह सकता, जीवन का यह बड़ा से वडा किन्तु अनिवार्य दुर्भाग्य है । ऐमी हारत में शास्त्र या सत्यामृत यही विधान कर सकता था कि हिंसा कम से कम हो और जो हो वह किसी उचित सिद्धान्त के माधार पर हो । सस्यामृत का सन्देश विश्व में अधिकतम सुखधर्धन का है, मोर सुखदुस्न की मात्रा प्राणी के अधिक वन्य पर निर्भर है, इसलिये शनिवार्य हिंसा की परिस्थिति में अधिक चतन्यवाले प्राणी की रक्षा प्रथम कर्तव्य है।
और ज्ञात प्राणियों में मनुष्य ही अधिक चैतन्यवाजा प्राणी है इसलिये इसकी रक्षा का प्रयत्न मुख्य बनाया गया है। सत्यामृत ने इस बात को साफ स्वीकार किया है और एक सिद्धांत का उसे रूप दिया है। इसमें व्यावहारिकता है।
___ जो लोग इस व्यावहारिकता को भुलाकर दूसरे प्राणियों की तुलना में मनुष्य को बराबर ही मानकर चलते हैं और कभी या कहीं इसी तरह के प्रदर्शन करते हैं, उनके जीवन में एक तरह की मदरदर्शिता और मारमवञ्चना पाई जाती है। उनके सिद्धान्त मानवधर्म शास्त्र के अाधार नहीं बन सकतेने