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________________ लोगों की अधिक से अधिक जिज्ञासाओ को इन प्रश्नों के उत्तरों में गुरु को इश्वर स्वर्ग नरव किसी तरह शान्त करने का प्रयत्न युग युगान्तर उनकं महापुरुष आदि का वर्णन धर्मगर न नीति सदाचार का उपदेश दिया करना पड़ा, इसके लिये जो कुछ तर्कसिद्ध मिल लेकिन शिष्य तो कोई भी काम करने के लिये वह लिया वाकी कल्पना से मरागया। इस प्रकार तभी तैयार होता जब उसस सुख की आशा धर्मशास्त्र में बहुत से विषय आगये और उनमें होती । परन्तु दुनिया का अनुभव कुछ उल्टा था। कल्पना का भाग काफी होने से विभिन्नता भी उसने कहा-दुनिया में तो दुराचारी विश्वास- हुई, क्योकि हरएक धर्म प्रवर्तक की कल्पना घाती दम्मी लोग वैभवशाली तथा श्रानन्दी देखे एकसी नहीं हो सकती थी। जाते हैं और जो सच्चे त्यागी हैं परोपकारी हैं आज हमें इतना ही समझना चाहिये कि नीतिमान है सदाचारी हैं वे पद-पद ठोकर खाते धर्म के फल को समझाने के लिये ये उदाहरण है तब धर्म का पालन क्या किया जाय १ शिष्य मात्र हैं। भिन्न-भिन्न धर्मो के, जुदे-जुदे वर्णन भी का यह प्रश्न निर्मूल नहीं था। शिष्य को यह सिर्फ इस बात को बताते हैं कि अच्छे कर्म का समझना कठिन था कि सत्य भी सत्य की ओट फल अच्छा और बुरे चार्म का फल बुरा है। में चल पाता है इसलिये सत्य महान है ? धर्म के ___ अगर कोई कहानी आज तथ्यहीन मालूम पालन में जो असली आनन्द है वह अधमी नही हो तो हमे दसी कहानी बना लेना चाहिये या पासकना । ऐसे समाधानों से बुद्धि को थोड़ासा खोज लेना चाहिये । धर्मशास्त्र में आये हुए विषयों, सन्तोप मिल सकता था पर हृदय को सन्तोष को विज्ञान की दृष्टि से न देखना चाहिये, धर्म के नहीं मिल सकता था। हृदय तो धर्म के फल म स्पष्टीकरण की दृष्टि से देखना चाहिये। इश्वर भीतरी सुख ही नहीं, बाहरी फल भी चाहता था। जब गुरु ने कहा-हमारा जीवन पूरा नाटक का दार्शनिक वर्णन धर्मशास्त्र के भीतर कर्मफल नहीं है नाटक का एक अंक है। नाटक का एक प्रदान के रूप में ही रहे। इस दृष्टि से परस्पर अंक देखने से पूरे नाटक का परिणाम नही विरोधी वर्णनों की भी संगति बैठ जायगी। । मालूम होता । राम के नाटक में कोई सीताहरण प्रश्न-इतिहास आदि को धर्मशास्त्र का तक खेल देखकर निर्णय करे कि पुण्य का फल अंग न माना जाय तो भले ही न माना जाय। गृहनिर्वासन और पत्नीहरण है तो उसका यह पर दर्शनशास्त्र को अगर अलग कर दिया जायगई निर्णय ठीक न होगा इसी प्रकार एक जीवन से तो धर्म की जड़ ही उखड़ जायगी। धर्म का काम पुण्य-पाप के फन का निर्णय करना उचित है। समाचार दुराचार का प्रदर्शन कराना तो है ही धर्म का अमली फन्त नो परलोक में मिलता है। साथ ही यह बताना भी है कि वह फल कैरे बीज से फल आने तक जैसे महीनी और वो मिलता है। इसके उत्तर में दर्शनशास्त्र का घड लगजाते है उसी तरह पुण्यपार फल के बीज भी भाग या जाता है इसलिये दर्शन को धर्म । वर्षों युगों और जन्म जन्मान्तरों में अपना फन , अलग नहीं किया जा सकता। उत्तर-दर्शन का धर्म से कुछ नि इस उत्तर से शिष्य के मन का बहुतसा सम्बन्ध अवश्य है क्योकि धार्मिक दृष्टि से वि समावान होगया पर जिज्ञासा ओर मी बढ़ाई। की व्याख्या करने वाले शास्त्र को दर्शनशा परलोक क्या है । वहा कौन जाता है ? शरीर तो कहते हैं। विज्ञान और दर्शन में यही अ यहीं पडा रह जाता है, परलोक कैसा है फाल कौन है कि विज्ञान धर्म निरपेन है और दर्शन । देता है १ पहिले कर किनको कैसा फल मिला है। मापेन । फिर भी दो कारणों से धर्म और
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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