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________________ हाएका .. १५ - - - किसी व्यक्तिविशेष पर अहसान का बोझ न योगीको लब्धियाँ जिम्मपेरिद्धोखे) लादना करीज्य भावना है। ___ अद्वैत भावना ( नोबुमोभावो )-सब संघर्ष र अवस्था सममाव के प्राप्त होने पर मनुष्य और पापा के मूल में द्वत है। जिसकी पर , योगी बनाता है, वह अनेक ऋद्धि सिद्धयों को पा जाता है। ऋषि सिद्धि का मतलय अणिमा समझा उसके स्वार्थ से संघर्षा हुआ और पाप महिमा आदि कल्पित और भौतिक शक्तियो से आया। जहों अद्वैत है वहाँ हानि लाभ का नहीं है किन्त उस आध्यात्मिक बल से है जिसके विचार भी नहीं रहता । अपनी हानि होकर दूसर प्राप्त होने पर मनुष्य विजयी बनता है, आत्म का लाभ हुआ तो वह भी अपना लाम मालूम विकास और विश्वकल्यास के मार्ग की सारी होने लगता। हमारा अन्न उब बेटा वेटी पत्नी कठिनाइयो पर विजय प्राप्त करता है, अन्तस्तल भाई माँ बाप आदि खा जाते हैं तब यह विचार । नहीं होता कि इननं कितना कमाया और कितना । के सारे मैल धो डालता है। योगी की ये आध्या. मिक लब्धियाँ तीन हैं- १-विन-विजय खाया, सब के साथ अद्गैत भावना होने से यही मालूम होता है कि मनं कमाया हमने ही खाया २-निर्भयता ३-अकषायता। विश्व के साथ जिसकी यह अद्वैत भावना विघ्न-विजय (बाधो तयो)-स्थपरकल्याण है वह दुःखी रहकर भी दूसरों को सुखो देखकर के मार्ग में चार तरह के विध्न आते है १ विपत् २ विरोध ३ उपेक्षा ४ प्रलोभन । योगी इन चारों सुखी होता है। जैसे शाप भूखा रहकर भी बच्चो पर विजय करता है। को खाते देखकर प्रसन्न होता है उसी प्रकार अढ़तभावनाशील मनुष्य नगन को सुखी देखकर १ विपत् विजय (मुसोजयो)- बीमारियाँ धनक्षय या साधनक्षय, सहयोगीका वियोग आदि ५ प्रसन्न रहता है इससे भी हर एक अवस्था में यह नाना तरह की विपदाएँ हैं जो मनुष्यों पर प्राती सन्तुष्ट रहता है। हैं- योगियो पर भी आती हैं परन्तु योगी उसकी पहिले भी कहा जा चुका है कि भावनाओं पर्वाह नहीं करता, उसका हृदय कर्तव्य से विचका दुरुपयोग न करना चाहिये. न अनुचित स्थान लित नहीं होता। बीमारी से शरीर अशक्त होने या अनुचित रीति से उपयोग करना चाहिये। से उनका शरीर कुछ निष्क्रिय भले ही हो वाय साथ ही इतना भो समझना चाहिये कि अवस्था. पर हृदय निकिय नही होता । कल्याण के मार्ग सममाव अपने को अधिक से अधिक प्रसन्न पर चलने से या विश्वसेवा करने से मैं बीमार रखने, निराशा और निरुत्साह न होने के लिये हो गया, अब वह काम न करूंगा इस प्रकार है, कर्मण्यता का नाश करने के लिये नहीं। हम उस का उत्साह भग नहीं होता । हा, बीमार होना मूर्ख हैं तो मूर्ख बने रहे, हम गुलाम है तो गुलाम दुनिया पर बोझ लादना है जगत मे दु.ख बढ़ाना ही बने रहे. लगत् में अन्याय अत्याचार होते है है, इसलिये बीमारी से बचने का यत्न करता है। तो चुपचाप देखते रहें यह अवस्थासमभाव नहीं पर शरीर जितना काम कर सकता है उतना काम है, यह बढ़ता है पामरता है। अवस्थासमभाषी करने में वह अपने हृदय को निर्बल नहीं पाता। वही है जो दु:ख सुख की पर्वाह किये बिना धन का क्षय हो जाय, उचित साधन न कल्याण में लगा रहता है, जिसे सफलता अस. मिले सहयोगी न मिले तो भी वह हाथपर हाथ फलता की मी पर्वाह नहीं होनी, कोई भी विपत्ति रखकर बैठकर नहीं रह जाता। अपनी शक्ति का जिसे विचलित नहीं कर सकती, कोई प्रलोभन वह अधिक से अधिक उपयोग किसी न किसी जिसे लुभा नहीं सकता, जिसे कोई हतोत्साह तरह आगे बढ़ने के लिये करता ही है। प्रगति नहीं कर सकता। हो न हो था कम हो पर उसके लिये वह अपनी
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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