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________________ गुणा है। अकार दुखद है श्रात्मगौरव है। आत्मगौरवहीन मनुष्य फजूल ही दूसरों की परेशानियों बढ़ाता है, उनका समय बर्बाद करता है उन पर चोक बनता है उन्हें संकोच में डालना है, इसलिये आत्मगौरव आवश्यक है इतना खयाल रहे कि आत्मगौरव के नाम पर न होने पाये। उचित निय रहना ही चाहिये । ४ महत्वभावना (बोगीभावो ) -- जब हमारी कोई हानि हो जाय, हम निराश या असन्तुष्ट हो नायें, मन मे araar raatयता का राज्य जम जा, उत्साह न हो जाय, तब हम महत्व भावना का उपयोग करना चाहिये। महत्व भावना के विचार इस प्रकार होते हैं। है भावना ( स्त्रीभावो )- मनुष्य अपने स्वार्थ के लिये सबसे आजा लगाया करता वह हमे धन देदे यह अमुक सुविधा देने आदि। जब यह श्राशा पूरी नहीं होती न उसका द्वेष करता है दुखी होता है। इसके लिये अनुत्व भावना का विचार करना चाहिये कि किसी पर मेरा कोई ऋण नहीं है इसलिये किसी ने मंग मुकाम नहीं किया तो इसमें बुराई की क्या बात है। जब पेंढा हुआ था त मेरे पास क्या था। न धन था न चल, न बुद्धि विद्या। यह सत्र समाज से पाया इसलिये अगर इसका फल समाज को या किसी दूसरे को दे दिया तो इसमें किसी पर मेग क्या ऋण हो गया। वह तो लिये हुए ऋण का अमुक श में चुकाना हुआ। इस प्रकार किसी पर अपना न समझने में दूसरे से पाने की लालसा हो होजाती है और न पाने से विशेष खेद नहीं होता, समभाव बना रहता है । संसार में एक से एक चढ़कर दुखी पड़े हुए है । पिसी को भरपेट खाने को नही मिलना, का रोग के मारे तड़प रहा है कोई स्थायी बीमारियों का शिकार है किसी के पुत्र पनि आदि सर ये हैं, fair at ra re fवश्राम करने के लिय स्थान भी नहीं है उनसे मेरी अवस्था अच्छी है। मेरे ऊपर एक या दो आपत्तियों है पर चारों तरफ स दुःखी पददलित मनुष्य से यह संसार भरा पड़ा है, मेरी दशा ना उनस काफी अच्छी है, फिर मुझे इस प्रकार दुखी होने का क्या अधिकार है? खालिक ने एक एक से बढ़कर बना दिया। सौसे बुरा तो एक से श्रद्धा वना दिया || मैं एकाध से अच्छा हूँ यही क्या कम है ? इस भावना से मनुष्य की घवराहट दूर हो जाती है । हृश्य को एक प्रकार की सान्त्वना सिलती है। पर इस भावना का उपयोग अवनति के गढ्ढे मे पढ़े रहने के लिये न करना चहिये । अपनी और जगतकी उति करनेके लिये. अन्याय अत्याचारों को दूर करने के लिये, सदा प्रयत्न करते रहना जरूरी है। जब निराशा होने लगे उत्साह मग होने लगे तब इस भावना का चिन्त वन करना चाहिये । ६ भावना ( मत्तोमाचो ) - मैंने अमुक का य किया और अमुक का त्यों किया इस प्रकार के विचारों से मनुष्य दूसरी को अपन से 1 तुच्छ समझने लगता है और दूसरों के श्रम पर मौज करना अपना हक समझ लेता है इससे संघर्ष और द्वेष बढ़ता है और अपनी कर्मयता के कारण दुनिया की प्रगति भी reat है इसके लिये कर्तव्य भावना का उपयोग करना चाहिये । मनुष्य कर्म किये बिना रह नहीं सकता विश्राम का आनन्द तभी तक है अतक उसके आगे पीछे कर्म है, अन्यथा कर्महीन विश्राम एक जलखाना है या जड़ता है। इस प्रकार कर्म करना मनुष्य का स्वभाव है ऐसी हालत में उसे कुछ न कुछ करना तो पड़ता हो, तब यदि उसके कम से किसी को कुछ लाभ हो गया तो वह दूसरे पर अहसान क्यों लादे ? जुगनू स्वभाव से चमकता हुआ जाता है उससे अगर किसी को प्रकाश मिल गया तो जुगनू उस पर अहसान क्यों बताया १ परोपकार को स्वाभाविक कर्म सम
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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