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सुष्टिकांड
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कष्ट दूसरे से परिचर्या पाने में घटनायगा। सेवा यदि यह मानलिया जाय कि जो कुछ होता करने के कष्ट की अगर दस मात्राएँ हो तो सेवा है वह मनुष्य के पुण्य पाप कर्म के उदय से ही पाने के श्रानन्द की सौ मात्राएँ होगी। इस प्रकार होता है, तो अपने कार्यों की जिम्मेदारी से हरदोनो ही दस-दस देकर सौ-सौ पाने से नम्वेनले एक आदमी बचजायगा। यदि चोर चोरी करता के लाभ में रहेंगे। मतलब यह कि प्रणी में स्वार्था- है तो कहना होगा कि उसने कोई बुराई नहीं न्धता जितनी कम होगी, परस्पर उपकार का की, क्योंकि जिसकी चोरी हुई उसके पाप-कमें प्रयत्न जितना अधिक होगा, सु.ख की वृद्धि के उदय से चोरी हुई, चोर बेचारे को तो निमित्त उतनी ही अधिक होगी। स्वार्थान्धता के कारण बनना पड़ा, जिसका खून हुआ उसका पाप-कर्म जो संघर्ष होता है उसकी छीनाझपटी में सुख उदय में आया, खूनी तो बेचारा निमिचमात्र पैदा ही नहीं होपाता, अथवा जो पैदा होता है बना। इस प्रकार जगत में लितने पापी है सब उसका बहुभाग मिट्टी में मिल जाता है अर्थात् वास्तव में पापी न कहलायेंगे, निमितमात्र कहनष्ट होजाता है। इसलिये स्वार्थान्धता जितनी लायेंगे। जैसे चोर को जेल जाने का दण्ड दिया कम हो, परोपकार और सहयोग जितना अधिक जाय तो चोर को जेल में बन्द रखनेवाला जेलर हो उतना ही अच्छा है। इससे समाज में सुख पापी नहीं कहलाता उसी प्रकार पाप-कर्म के अधिक बढ़ता है और हरएक व्यक्ति के हिस्से में उदय को भोगने के लिये चोर खूनी आदि बनकर अधिक पाता है। इसलिये मनुष्य का प्रयत्न जो पापोदय के निमित्त बनते है वे पापी सार्वदेशिक और सार्वकालिक दृष्टि चे यथासम्भव न कहलायेंगे। इस सिद्धान्त का परिणाम यह अधिक से अधिक सुख होना चाहिये । इसी को होगा कि संसार में कोई पापी न कहा जासकेगा। कसौटी बनाकर हम नीति-नीति का निर्णय तव दूसरी समस्या यह खड़ी होगी कि जब ससार कर सकते हैं।
में कोई पापी बनता ही नहीं, तब जिस श्रादमी ___ -परोपकार की कोशिश कितनी भी की चोरी हुई वह पहिले जन्म मे पापी कैसे बना की जाय, पर है व्यर्थ ही। क्योंकि हरएक प्राणी होगा ? जो भी उसने पाप किया होगा वह किसी जो सुख-दुःख भोगता है वह पूर्व पुण्यपाप के दूसरे को सताकर किया होगा, पर उसके सताने उदय से ! सो वह तो भोगना ही पड़ेगा, तब में तो पूर्वजन्म में भी वह उस दूसरे के कर्मोदय किसी के उपकार से क्या होने जानेवाला है' में निमित्तमात्र बना होगा इसलिये वह पापी ऐसी हालत में उपकार के मंझट मे क्यों पडना नहीं कहा जासकता। जब वह पापी नहीं तो चाहिये।
इस जन्म मे जो उसकी चोरी करता है वह किस
में बात में निमित्त बनता है १ पाप कर्म के उदय में उत्तर-राणी के पास पुण्य-पाप आता है
तो निमित्त बन नहीं सकता, क्योंकि वह पापी तो कहां से १ अमराणी किसी का उपकार करता है तत्र पुण्य होता है और जब किसी का अपकार
है ही नहीं। करता है तब पाप होता है। अगर उपकार अप. मतलब यह कि हर कार्य की जिम्मेदारी कार का कुछ अर्थ न हो तो पुण्यपाप भी न हो, यदि पूर्वजन्मके पाप-पुण्य पर डाली जाय तो तब भोगने के तिये पुण्यपाप कहां से आयगा। जगत् में पुण्य-पाप को व्यवस्था हीन बने। यदि उपकार करने से पहिले जन्म मे हमें पुण्य- इसलिये जो लोग पुण्य पाप की व्यवस्था मानते बन्ध हुआ था तो इस जन्म में भी उपकार करने है उन्हें भी इतना तो मानना ही पड़ेगा कि सारी से पुण्यवन्ध होगा इसलिये अपनी भलाई के जिम्मेदारी उस पूर्व पुण्यपाप की नहीं है, मनुष्य लिये, अपने पुण्यवन्ध के लिये, अधिक से अधिक के कर्तव्य की भी है। ऐसी हालत में मनुष्य को परोपकार करना चाहिये।
अपना कर्तव्य करना ही चाहिये । नहीं तो पुण्य