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________________ [ २४० ] सत्यामृत ठंड से बचे रहते हैं । यह परकृति पर मनुष्य की विजय है - इसे ही हम दैव पर ग्रस्त की विजय कह सकते हैं। जहाँ देव की प्रतिकूलता अधिक और यत्न कम होता है वहाँ यत्न हार जाता है और जहाँ देव की प्रतिकूलता कम और यान अधिक है वहा देव हार जाता है। इसलिये यत्न सदैव करते रहना चाहिये | एक बात और है कि देव की शक्ति कहा, कितनी और कैसी है यह हम नहीं जान सकते, देव की शक्ति का पता तो हमे तभी लगता है जब कि अनेक वार ठीक ठीक और पूरा प्रयत्न करने पर भी हमें सफलता न मिले। इसलिये देव की शक्ति अजमाने के लिये भी तो ग्रत्न की आवश्यकता है । और इसका परिणाम यह होगा कि हमें यत्नशील होना पडेगा । प्रश्न - देव और यत्न ये एक गाड़ी के दो पहिये हैं तब एक ही पहिये से गाड़ी कैसे चलेगी । उत्तर- इस उपमा को श्रम और ठीक करना हो तो यों कहना चाहिये कि देव गाड़ी हैं रत्न बैल | जाड़ी न हो तो बैल किसे खीचेंगे? और बैल न हो तो गाड़ी को खींचेगा कौन ? इसलिये दोनों की जरूरत है। पर साधी का काम चलो का डाँकना है गाड़ी बनाना नहीं | गाड़ी उसे जैसी मिल जाय उसे लेकर अपने बैला से खिंचवाना उसका काम है यहां उसकी यत्नप्रधानता है, देव ने जो सामग्री उपस्थित कर दी उसका अधिक से अधिक और अच्छा से अच्छा उपयोग करना मनुष्य का काम है इसलिये मनुष्य गन-प्रधान है। अ - मनुष्य कितना भी प्रयत्न करे परन्तु होगा वही जो होनहार या भवितव्य है । इसलिये यत्न तो भवितव्य के अधीन रहा, यत्न- प्रधानता क्या रही ? ६ कभी कभी ऐसा होता है कि देव की शक्ति यत्न से क्षीरा की जाती है, शुरू में तो ऐसा मालूम होता है कि यत्न व्यर्थ जा रहा है पर अन्त में यत्न सफल होता है। जैसे एक आदमी के पेट मे खूब विकार जमा हुआ है, उस विकार से उसे बुखार आया इसलिये लघन की, पर फिर भी बुखार न उतरा, घाता ही रहा, तो यहा बुखार का कारण लघन नहीं है, लंघन तो बुखार को दूर करने का कारण है परन्तु जब तक लघने जितनी चाहिये उतनी नहीं हुईं तब तक बुखार प्रश्न- कहा तो यो जाता है कि " इसकी का जोर रहेगा और लंब चालू रहने पर चला होनहार खराब है इसीलिये तो इसकी अक्ल जायगा । पेट में जमा हुआ विकार यदि देव है भारी गई है, वह किसी की नहीं सुनता अपनी तो लंघन यत्न 1 प्रारम्भ मे दैव बलवान है इस ही अपनी करता चला आता है" इस प्रकार लिये लघन रूप यत्न करने पर भी सफलता नहीं के वाक्यप्रयोग होनहार को निश्चित बताते हैं और मिलती परन्तु यत्न जब चालू रहता है तब देव अक्ल मारी जाने आदि को उसके अनुसार की शक्ति क्षीण हो जाती है और यत्न सफल हो बनाते हैं। जाता है । मतलब यह है कि रसिकूल दैव यदि वलवान हो तो भी यत्न से निर्बल हो जाता है और अनुकूल देव यदि बलवान हो किन्तु यत्न न मिले तो उससे लाभ नहीं हो पाता। इस प्रकार यत्न हर हालत में आवश्यक है इसलिये यत्न परधान बनना ही श्रयस्कर है। १ 1 A " उत्तर - यत्न वर्तमान की चीज है और होनहार भविष्य की चीज है। भविष्य वर्तमान का फल होता है वर्तमान भविष्यका फल नहीं, इसलिये होनहार यत्न का फल है । यत्न होनहार का फल नहीं। जैसा हमारा यत्न होगा वैसी ही होन हार होगी। इसलिये जीवन यत्न-प्रधान ही हुआ । उत्तर - यह वाक्य रचना की शैली है या अलकार है। जब मनुष्य ऐसे काम करता है कि जिसके अच्छे बुरे फलका निश्चय जनता को हो जाता है तब वह इसी तरह की भाषा का प्रयोग करती है। एक आदमी को दस्त ठीक नहीं होता, भूख भी अच्छी नहीं लगती फिर भी स्वाद के
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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