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________________ किड I L श्रत है इसलिये रक्त-शुद्धि देखना भी जरूरी है। उत्तर---भोजन में मुख्यता से चार दातो का विचार करना चाहिये । १- अहिंसकता २- स्वास्थ्यकरता ३ इन्द्रिय प्रियता ४- अग्लानता । श्रहिसकता के लिये मास आदि का त्याग करना चाहिये । स्वास्थ्य के लिये अपने शरीर की प्रकृति का विचार करना चाहिये और ऐसा भोजन करना चाहिये जो सरलता से पच सके और शरीर-पोषक हो । इन्द्रियप्रियता के लिये स्वादिष्ट, सुगंधित, देखने में अच्छा भोजन करना चाहिये। श्रग्लानता के लिये शरीरमल आदि का उपयोग न करना चाहिये । भोजन से सम्बन्ध रखनेवाली ये चारों बातें छाछूत या जातिपांति के विचार से सम्बन्ध नहीं रखती। ब्राह्मण कह लाने वाले भी मासभक्षी होते हैं और मुसलमान तथा ईसाई भी मासत्यागी होते हैं। पर देखा यह जाता है कि एक मासभक्षी ब्राह्मण दूसरी जाति जैन या वैष्णव की भी छूत मानेगा। उसके हाथ का वह शुद्ध से शुद्ध भोजन न करेगा और उसे वह भोजन शुद्धि या धर्मं समझेगा। यहा बाह्य शुद्धि तो है ही नहीं, परन्तु अन्त. शुद्धि की भी हत्या है। { यह कहना कि दूसरी जातिवालों का रक्त इतना खराब होता है कि उसके हाथ का हुआ हुआ भोजन हर हालत मे अशुद्ध ही होगा, कारी faster और चना है। मनुष्यमात्र की एक ही जाति है, इसलिये मनुष्यों के रक्त में इतना अन्तर नहीं है कि एक के हाथ लगाने से दूसरे की शुद्धि नष्ट हो जाय । कम से कम मनुष्यों के रक्त में गाय भैंस आदि पशुओं के रक से श्रमिक अन्तर नहीं हो सकता, फिर भी जब हम गाय भैंस का दूध पीते हैं तब भोजन के विषय में रक्त शुद्धि की दुहाई व्यर्थ है और जो लोग मास स्वाते हैं वे भी रक्तशुद्ध की दुहाई दें यह तो और भी अधिक हास्यास्पद है। माँ बाप के रक्त का असर सन्तान पर होता है पर उसका सम्बन्ध जाति से नहीं हैं । रक्त के असर के लिये जाति-पांतिका खयाल नहीं किन्तु [ २५ ] बीमारी आदि का खयाल रखना चाहिये। बीमारी का ठेका किसी एक जातिके सब आदमियो ने लिया हो ऐसी बात नहीं है । हाँ, जिन लोगों के यहाँ का खानपान बहुत गंदा है उनके यहाँ खाने में, या हम मासत्यागी हो तो मासभक्षियों के यहा खाने में परहेज करने का कुछ अर्थ है। इन लोगों के यह तभी भोजन करना चाहिये जब जाति-समभाव के प्रदर्शन के लिये भोजन करना उपयोगी हो । पर किसी भी जातिवाले को जातीय कारण से अपने साथ खिलाने मे आपत्ति न होना चाहिये । जिनने अपने भोजन की शुद्धि शुद्धि के तत्व को अच्छी तरह समझ लिया है और जिन में अहिंसकता आदि के रक्षण का काफी मनोबल है उन्हें तो किसी भी जाति में भोजन करने में आपत्ति न होना चाहिये, ऐसे लोग जहां भोजन करेंगे वहां कुछ न कुछ अहिंसकता स्वच्छता आदि की छाप ही मारेंगे। हा, जो बालक हैं या अज्ञानी होने से बालक समान हैं खानपा विषय में हिंसक या गये लोगों से धर्चे तो ठीक है पर उन्हें अपने घर बुलाकर स्वच्छता के साथ अपने साथ भोजन कराने में आपत्ति किसी को न होना चाहिये। बाह्य शुद्धि भी आवश्यक है पर उस की ओट में मनुष्य से घृणा करना या हीनता का व्यवहार करना पाप है। * मूल भोजन शुद्धि के नाम पर एक तरह का भ्रम या अतिवाद और फैला हुआ है जिसे मध्यप्रात में 'सोला' ( रंढशो ) कहते हैं। इसके जाति-पाति की कल्पना ही नहीं है किन्तु शुद्धि के से लिये यह जरूरी नहीं है कि कपड़ा स्वच्छ हो पर नाम से बड़ा अतिवाद फैला हुआ है । सोला के. उसे किसीने छुआ न हो। सोला के अनुसार वह यह जरूरी है कि पानी मे से निकलने के बाद कपड़ा भी अशुद्ध मान लिया जाता है जिसे पहिन कर हम घर के बाहर निकल गये हों । थोड़ासा भी स्पर्श शुद्धि को बहाले जाता है । गंदगी के अतिवाद को दूर करने के लिये शुद्धि के इस अतिवाद की औषध रूप में कभी जरूरत 1 :
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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