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________________ दृष्टिकांड । ६३ । - - - - - - - - - - - - - इसरो के लिये कुआ खुदवादे धर्मशाला बनवा प्रदान उचित कहा जासकता है। तो यह पाप न होगा, ऋण चुकाना रूप धर्म प्रश्न- इसप्रकार तो थोड़े प्राणियों के लिये होग, इसे एक तरह की ईमानदारी का कर्तव्य अधिक प्राणियों का नाश होता ही रहेगा। इससे कहना चाहिये। दुःखवर्धन ही होगा। तब सुखवर्धन ध्येय कैसे प्रश्न--जो अपने कुटुम्बी है या जो संयमी पूरा होगा ? आप गाय की जान बचाने के लिये हैं उनका उनकार करना ठीक है, पर हरएक का असंख्य वनस्पतिजीवो का नाश करेंगे, यह उपकार करके हिंसा क्यो बढ़ाना चाहिये ? अनि स्पष्ट ही एक के सुख के लिये असंख्य प्राणियों वाय और संयमवर्धक उपकार ही करना का दुःख है, अब सुखवर्धन ध्येय कहां रहा? चाहिये। उत्तर-इतना विवेक तो हमें रखना ही चाहिये कि जहां टोटल मिलानेपर सुखवन से ___उत्तर-कुटुम्बियों के साथ हमारा घनिष्ट अधिक दुखवर्धन होता हो वहां सुखवर्धन छोड़ सम्बन्ध होता है इसलिये उपकार का आदान देना चाहिये। अगर दुःखदर्धन की अपेक्षा मुखप्रदान भी उनसे विशेष मात्रा में है पर हमारा वर्णन अधिक मालूम हो तो वह करना चाहिये ।। साग जीवन इनेगिने कुटुम्बियों में ही समाप्त इतना विवेक न हो तो ध्येयदर्शन या कर्तव्यानहीं होजाता। घर में आग लगनेपर अकेले कर्तव्य निर्णय नहीं हो सकता। कुटुम्बी ही उसे नहीं घुझाते, दूसरो से भी मदद __हां! सुखदुःख का विचार करते समय लेना पड़ती है, प्रवास मे था घर के बाहर कुटुम्बी सिर्फ प्राणियों की गणना का विचार न करना ही काम नहीं आते किसी से भी मदद लेना पड़ती चाहिये, किन्तु सुखदुःख की मात्रा का विचार' है, इसलिये एक तरह की विश्वकुटुम्बिता को अप करना चाहिये । निम्न श्रेणी के असंख्य प्राणियो नाये बिना गुना नहीं है। इसप्रकार प्रत्येक व्यक्ति के सखदाख की अपेक्षा, उच्च श्रेणी के एक प्राणि विश्व का ऋणी है और यथाशक्य उसे विश्व का में सुखदुःख अधिक होता है। वनस्पतियों के" ऋण चुकाना चाहिये, वह विश्व का कुटुन्मी है सुग्वदुःख की अपेक्षा कीट-पतंगो का सुखदुःख और यथाशक्य विश्व से कौम्धिकता निभाना असंख्य गुणा है, उनसे असंख्य गुणा पशुचाहिये । इस विषय में जितना सकुाचत हाटस पक्षियों का है उनसे असंख्य गुणा मनुष्य की काम लिया जायगा, वह उतनी ही स्वार्थपरता है। ज्ञान का, चैतन्यशक्ति का, अर्थात् संवेदन और नाठानी होगी। शक्ति का जितना जितना विकास होता जाता है। ____ मंयमियों के उपकार करने का अर्थ है कि उतना उतना सुखदुःख बढ़ता आता है। दुखसुख उनका विशेष उपकार करना चाहिये, क्योंकि वे के मापतौल में हमें चैतन्य की मात्रा का विचार अपने सयमपूर्ण जीवन से जगत का विशेष उप- न छोड़ देना चाहिये । इसलिये साधारणत: कार करते हैं। पर संयम का अर्थ अमुक सम्भ- अनेक पशुओ की अपेक्षा एक मनुष्य का बचाना दाय की साधुसंस्था के सदस्य, या अमुक वेपधारी अधिक कर्तव्य है। हा। इतनेपर भी उसकी मनुण्य नहीं है किन्तु जहा जो संयम का परिचय मर्यादा है। मनुष्यपर प्राणसंकट आया हो तो देवहा वही संयमी है। इस प्रकार संयमों का उसके बचाने के लिये पशु का जीवन लगाया क्षेत्र भी विशाल है, इसलिये परोपकार का क्षेत्र जासकता है, पर मनुष्य के सिर्फ विलास के • भी विशाल होजाना है। जिये पशु का जीवन नहीं लगाया जासकता। जब बात-अज्ञात समी मनुष्यो से हमे उप- खाने के लिये परिपूर्ण अन्नादि सामग्री रहनेपर कार का आदान-प्रदान करना पड़ता है, सभी भी स्वाद के लिये मास-भक्षण करना और उसके जगह ज्ञात-अज्ञात मनुष्यों में संयमी है, तब हर- लिये पशुवध करना कराना अनुचित है। एक का उपकार करने से ही उपकार का आदान- चलने-फिरने, साफ-सफाई करने आदि
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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