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________________ एप्रिकॉट [२५] - - - - - - - ~ - we -uman - - . . - - - - - - गोग्यता का 1 न इसमें प्रात्मगौरव होता है न -दीन चाटकार ( नह रंनाय । जिसमे विनय । इस ष्टि से ना पशुता का शिकार है। घमंड नहीं है योग्य गौरव भी नहीं है और चाप न चार मन से पता लगाना है कि लूसी कर रहा है। भीनमा और विनय अलग अलग गा है। दीन इन चार भेदो से दीनता और चापलूसी का मजार नविनीत भी होसकता है पोर अदीन अन्तर अच्छी तरह समझा जासकता है। चापगनुप्य विनीत भी होसकता है। अनीनता गण है लूसी छोड़देने से दीनता छूट जायगी ऐसा नियम विनर के साथ उसका विरोध नहीं है । सत्यदर्शन नहीं है। दोनों को छोड़ने का अलग अलग प्रयत्न के लिये उमकी समान है। करना पडेगा। अटीन हो, चापलूस न हो, पर समानता क्या चापलूसी है ? यदि नही विनयी हो, यही उचित अवस्था है। तो नीनना और चापलसी में क्या अन्तर है ? शंका-श्रदीनता का विनय से विरोध न उत्तर-हीनता ज्ञान का परिणाम है होनेपर भी परीक्षा का काम अशक्य ही है। बडे. और चापलूमी पश्चना का परिणाम है । दीनता बडे शास्त्रकारों की या महामानवो की परीक्षा गन की वृत्ति है जो चास्तवम मनमे होती है और कैसे की जासकती है। अगर यह मान भी लिया उमर अनुमार व्यवहार होना है। चापलूसी जाय कि आजकल पुराने विद्वानो से बड़े विद्वान पाटण व्यवहार है। इस व्यवहार के होसकते हैं, तो भी हर आदमी या ढेर के देर 'पनुसार मनोवृत्ति प्रायः नहीं होती। दीनता परी- श्रादमी तो उतने बड़े विद्वान नहीं होसकते। जक बनने में बाधा डालती है । चापलसी परी- फिर ऐसे अवसरों पर 'पीकता का उपयोग नक बनने में वाया नहीं बालली, सिर्फ उसके केस किया जासकता है। दूसरी बात यह है कि प्रगट याने में बाधा डालती है। फिर भीसा परीक्षकता मे महामानवों का थोड़ा बहुत अधिहामाना है कि एक भागमी दीन भी हो और नय तो है ही, उनकी अपेक्षा अपने व्यक्तित्व को चापलूस भी हो। इस दृष्टिसे भी मनुष्य चार अधिक महत्व देदेना भी एक प्रकार का अविनय भागें में विभा होते हैं। है। क्या इन सब बातों के कारण परीक्षकत्ता को १-प्रदीन अचाटुकार (गोन नोरनाय) उचित कहा जासकता है ? जिसमें नीनता भी नहीं चापलूसी भी नहीं । सा समाधान-परीक्षा अनेक तरह की होती बातमी आत्मगौरवशाली मी सकता है, घमंडी है। किसी किसी परीक्षा में परीक्षक बड़ा माना भी होसकता है : समान भी सकता है, दुर्ज- जाता है और वह बडा होता भी है पर किसी न मी होसकता है। किसी परीक्षा में परीक्षक वरायरी का, छोटा या २-टोन अचाटुकार (नह नोरंनाय ) अनिश्चित होता है। इसलिये परीक्षक बनने से जिनमे दीनता हो, पर किसी को छलने धोखा देने ही किसी का अपमान न समझना चाहिये । आदिकी दुर्वासना न हो इसलिये चापलूसी न परीक्षा के मुख्य मुख्य प्रकार बतादेने से यह बात करता हो । भले ही उचित विनय करता हो। स्पष्ट होजायगी। परीक्ष्य परीक्षक के सम्बन्ध की ३-प्रदोन चाटुकार ( नेह नाय) दृष्टि से परीक्षा पांच तरह की होती है । १-पास जिसमें दीगता नहीं है कदाचित घमंड ही है। पर । परीक्षा, २-द्वन्दपरीक्षा, ३-आलोचनपरीक्षा, लेकिन मोचता है कि इससमय तो काम निकालना ४-उपपरामा, ५-वनयपराज्ञा । है इसलिये मीठी मीठी बातोंसे और नम्र व्यवहार . १-गुरु परीक्षा (बीग दिजो ) जिस परीक्षा स. मती माची तारीफ से काम निकाल लेना में परीक्षक गुरु या गुरु के समान व्यक्ति होता है चाहिये । इस प्रकार घमंडी होकर भी जो चाप- वह गुरुपरीक्षा है। साधारणत विद्यार्थियों की सी करना है वह अदीन चाटुकार है। ऐसी ही परीक्षा ली जाती है।
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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