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________________ - - - -- गई। इस तरह यह समन्वय सागपूर्ण बनाया उत्तर-मनुष्य के उस आचार-विचार को गया। सिर्फ सम्मिलित नामकरण ही नहीं रहा। धर्म कहते हैं जिसके द्वारा मनुष्य का वैयक्तिक प्रश्न-भतधर्म, युगधर्म आदि भेदो से पता और सामाजिक कल्याण होता है सुग्ब बढ़ता है लगता है कि आप कालक्रम से धर्मों का विकास एक व्यवस्था पैदा होती है। उस धर्म को पैदा मानते हैं पर ऐसी बात नहीं मालूम होती। जैन करने या टिकाये रखने के लिये जो एक व्यव स्थित मनोवैज्ञानिक प्रयत्न किया जाता है उसे. धर्म बौद्धधर्म काफी पुराने होनेपर भी काफी धर्मसंस्था कहते हैं। इसके लिये बहुत-सी धर्मविकसित कहे जासकते हैं जब कि इसके पीछे के अनेक धर्म कम विकसित हैं। संस्थाओ ने ईश्वर परलोक आत्मा आदि का सहारा लिया है पर ये धर्मसंस्था के अनिवार्य उत्तर-समुद्र तट से हिमालय की तरफ अंग नहीं हैं, इनके बिना भी धर्मसंस्था खडी बढ़ने में हमे ऊंचे ऊचे जाना पड़ेगा पर चढ़ाई का होसकती है हुई है। प्रारम्भ में बौद्धधर्म संस्था क्रम एक सा न होगा। बीच बीच में उतार भी इसके बिना ही खडी हुई थी। धर्मसंस्था की जो नायगा। हर रास्ते का उतार चढाव का क्रम भी एकमात्र विशेषता है वह है किसी आचार-विचार एक-सा न होगा। इसी तरह मानव के धार्मिक के लिये मन मे निष्ठा पैदा करना, सस्कार के विकास में भी उतार चढ़ाव आते है। हर देश जरिये अमुक आचार-विचार को मन मे स्थिर की परिस्थिति के अनुसार विकास के क्रम में भी करना । यह भी उसकी एक विशेषता कही जाअन्तर है। कहीं दोहजार वर्ष पहिले जितना सकती है कि उसमे कल्पित या अकल्पित अमुक विकास होगया दूसरी जगह एक हजार वर्ष व्यक्ति या व्यक्तियों के प्रति एक तरह का विशेष पहिले भी उतना विकास नहीं था। पर सामूहिक विनय रहता है। धर्म और धर्मसंस्था का इस रूप में मनाय का विकास होता जारहा है और प्रकार ठीक रूप समझने के बाद इस प्रश्न के धर्मसंस्था का भी विकास होरहा है इसमें कोई उत्तर में निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना सन्देह नहीं चाहिये। प्रश्न-अाज तक मनुष्य ने धर्मसंस्थायी १-वास्तव में एक समय एसा पासकता का काफी उपयोग किया है क्योंकि उससमय है जब मनुष्यमात्र इतना विवेकी होजायगा कि विज्ञान प्रगति पर नहीं था पर अव वैज्ञानिक युग उसे किसी धर्मसंस्था (धर्मतीर्थ) की जरूरत न आगया है अब धर्मसंस्थाओं को मिटना पड़ेगा, होगी और वह धर्मात्मा बननायगा। पर वह नई धार्मिक संस्थाएँ तो पैदा हो ही नहीं सकती, समय अनिश्चिन भविष्य का है। और अच्छी क्योकि धर्म विज्ञान के साथ मेल नहीं बैठा तरह इसलिये प्रयत्न किया जाय तो भी सौ वर्ष सकता। लोग धर्म और विज्ञान को मिलाने की तक वह समय नहीं प्रामकता। अभी हमें उस समय की आशा ही रखना चाहिये। उसके अनुकोशिश करते हैं जरूर, पर यह असम्भव है। कूल मनुष्य की मनोवृत्ति तथा सामाजिक गजधर्मसंस्था अवास्तव कल्पना पर खडी होती है, नैतिक आर्थिक परिस्थिति का निर्माण करना गरीबी पिछडी हुई उत्पादन पद्धति श्रादि पर चाहिये। इनके बिना धर्मसस्याओ को उखाड टिकती है. आज यह सामग्री नहीं मिलसकती। फेंकने की यात वेकार है, और अत्यन्त हानिकर कुछ दिनो तक पुराने धर्म मृत्युशय्यापर पड़े पडे है। मनुष्य धर्मसंस्था की जरूरत अनुभव करे सिसकेगे फिर बिना नया धर्म पैदा किये मर और उसे धर्मसंस्थान दीजाय तो इसका अर्थ जायेंगे। इसलिय मानव विकास के साथ धर्म होगा किसी अविकसित और गन्दी धर्मसंस्था संस्था के विकास का नियम बनाना ठीक नहीं। को अपना लेना। अगर किसी को प्यास लगी
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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