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________________ - - - चाहिये। उत्तर-देवोपासना से पुण्य होगा तो उस नहीं है और देवरूप में माने जाते हैं वे फुदव है । का फल आगे मिलेगा इससे पुराने पाप का फल उनकी उपासना न करना चाहिये । कैसे नष्ट होजायगा ? दूसरी बात यह है कि देवो ५ पाचवीं देवमूढता है परनिन्दा । पासना से ही पुण्य नही हो जाता, पुण्य होता सम्प्रदाय आदि के मोहवश दूसरे सुदेवो की है देवोपासना के सत्प्रभाव-नीति सदाचार आदि निन्दा करना पर-निन्दा है। अगर किसी देव के को जीवन में उतारने से, प्रतिक्रमण श्रादि तप विषय मे तुम्हारा खास आकर्षण है तो उसकी करने से । ये न हो तो देव-पूजा क्षणिक आनन्द खूब उपासना करो पर दूसरे देवों की निन्दा न देने के सिवाय और कुछ नहीं कर सकती। करना चाहिये और न ऐसी प्रार्थना पढ़ना चाहिये तीसरी बात यह है कि हरएक कारण से हराक जिससे उनकी निन्दा होती हो। कार्य नही हो सकता इसलिये देव-पूजा शारीरिक चिकित्सा का काम नहीं कर सकती। बीमारी में प्रश्न-इस तरह तो दो व्यक्ति-देवो में या संकट मे देव-पूजा से सहने की ताकत आ तुलना करना कठिन हो जायगा क्योंकि तुलना में सकती है, मन को बल मिल सकना है पर वैद्य तरतमता सिद्ध होना स्वाभाविक है। जिसका स्थान कुछ नीचा बताया जायगा उसी की निन्दा का काम पूरा नहीं हो जाता । देव पूजा से नि न. हो जायगी और इसे श्राप देव मूढता कह डालेगे। न्तानता का कष्ट सहा जायगा, विश्व-बन्धुत्व गैदा होकर सन्तान-मोह दूर जायगा पर सन्तान गेदा उत्तर-निष्पक्ष आलोचना में परनिन्दा न हो जायगी। इसलिये कुयाचना न करना नहीं होती। परनिन्दा मोह का परिणाम है, . आलोचना मोह का परिणाम नहीं है। तुलना ४-चौथी देव मूढ़ता दुरुपासना है । संयम करना चाहिये पर वह मोह और अहंकार का ___ कारण या फल न होना चाहिये । साथ ही तुलना को नष्ट करनेवाली उपासना दुरुपासना है । करने की बीमारी भी न होना चाहिये । जब जैसे देवता के नाम पर पशुवध करना, मद्यपान विशेष अविश्यकता हो तब ही तुलना करना करना, मांस-भोजन करना, व्यभिचार करना, चाहिये फिर परनिन्दा का नोप नहीं रहना । आत्मघात करना (पहाड़ से गिर पड़ना जल में डूब मरना आदि ) नरमेध यज्ञ श्रादि भी इसी लोक-मूढता (लुमो ऊतो ) बिना समझे था। मूढता मे शामिल हैं। बिना पर्याप्त कारण के लोकाचार का पक्षपात प्रश्न-कोई कोई देव ऐसी तामस प्रकृति होना लोकमूढता है। रीतिरिवाज क्रिसी अवसर के होते हैं जो ऐसे ही कार्यों से खुश होते हैं । पर किसी कारण से बन जाते हैं अगर कोई हानि उनकी उपासना के लिये थे कार्य करना ही पडत न हो तो उनके पालन करने में बुगई नहीं है पर हैं, अन्यथा वे परेशान करते हैं। उनका पक्षपात न होना चाहिये। हमारे यहा ऐसे कपड़े पहिनते हैं, ऐसे बाल कटाते हैं ऐसा उत्तर-पहिले तोसे कोई देव है ही नहीं भोजन बनाते हैं, इस प्रकार सजाते हैं इस प्रकार जो मास आदि चाहते हों । यह सब हमारी अभिवादन करते है, विवाह विवि ऐसी होती है, लोलुपता का परिणाम है । अगर हों तो उन्हे जन्म मरण पर ऐसा करते हैं ऐसी बातो का पक्षपूजना न चाहिये । देव तो प्राणिमात्र के देव हैं वे पात प्रबल होना उसकी बुराई को न दम्य सकना पशुओं के भी देव है। जगदम्बा पशुओ की भी उससे भिन्न लोकाचार की भलाई न देख सकता अभ्या है वह अपने लिये अपने पुत्रों का बलिदान लोक-मूढना है। कैंस चाहेगी ? सच्चे देव पाप नही कराते । पाप वेपभूपा में स्वच्छना सुविधा आदि का करनेवाले देव कुदेव हैं। जो अपने लिये आदर्श विचार काना चाहिये ! जिसमे हमें सुविधा है
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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