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________________ वाकाट २ पापजीवित (पापंजीव) वे हैं जो कर्म होना चाहिये, अन्यथा मनुष्य पापजीवित बन जायगा । तो करते हैं आलसी नहीं होते पर जिनसे मानव समाज के हित की अपेक्षा ही होता है इस श्रेणी में अन्याय सेो नरसंहार करनेवाले बड़े बड़े सम्राट् सेनापति योद्धा और राजनैतिक पुरुष भी आते हैं, गरीबों का खून बुसकर कुबेर बननेवाले श्रीमान भी श्राते हैं, जनसेवा का ढोंग करके बड़े बड़े पद पाने वाले ढोंगी नेता भी आते हैं, त्याग वैराग्य आदि का ढोंग करके दंभ के जाल में दुनिया को फंसानेवाले योगी सन्यासी सिद्ध महन्त मुनि कहलाने वाले भी आते हैं। ये लोग कितने भी यशस्वी हो जाय, जनता इनकी पूजा भी करने लगे पर ये पापजीवित ही कहलायेंगे। अपने दुस्वार्थों की पूजा करनेवाले सब पापजीवित हैं । चोर, बदमाश, व्यभिचारी, विश्वासबाती, ठग आदि तो पापजीवित हैं हो | ३ जीवित- ( जिवीर ) वे हैं जो हर एक परि स्थिति में यथाशक्ति कर्मठ और उत्साही बने रहते हैं इनके उदाहरण ऊपर दिये गये हैं। ४ दिव्यजीवित ( नन्दकं जिव )- वे हैं जो बच्चे त्यागी और महान् जनसेवक हैं। जो यश, अपयश की पर्वाह नहीं करते, स्वपर-कल्याण की ही पर्वाह करते हैं। अधिक से अधिक देकर कम से कम लेते हैं---यागी और सदाचारी हैं। ५ परमजीवित ( शोजियजिव ) - वे हैं जिन का जीवन दिव्य जीवितके समान है परन्तु इनका सौभाग्य इतना ही है कि ये यशस्वी भी होते हैं । fare की दृष्टि से दिव्य जोवित और परम ओबितों में कोई भेद नहीं है । परन्तु यश भी एक तरह का जीवन है और उसके कारण भी बहुत सा जनहित अनायास हो जाता है इसलिये विशेष यशस्वी दिव्यञ्जीवित को परमजीवित नाम से अलग बतलाया जाता है। [ २५ ] हर एक मनुष्य को दिव्यजीवित बनना चाहिये। पर दिव्यजीवित बनने से असन्तोष और परमजीवित कहलाने के लिये व्याकुलता न जीवनदृष्टि का उपसंहार बारह वातों को लेकर जीवन का श्रेणीविभाग यहाँ किया गया है और भी अनेक दृष्टियों से जीवन का श्रीविभाग किया जा सकता है। पर ऋद विशेष विस्तार को जरूरत नहीं है, समझने के लिये यहा काफी लिख दिया गया है। जीवन दृष्टि अध्याय में जीवन के सिर्फ मेद ही नहीं करने थे उनका श्रेणी-विभाग मी बताना था। इसलिये ऐसे भेदों का जिक्र नहीं किया गया जिससे विकसित जीवन का पता न लगे । साधारणत: अगर जीवन का विभाग ही करना हो तो वह अनेक गुणो की या शक्ति, कला विज्ञान आदि की दृष्टि से किया जासकता है। पर ऐसे विभागों का यहा कोई विशेष मतलब नहीं है इसलिये उपयुक्त बारह प्रकार का श्रेणीविभाग बताया गया है । हरएक मनुष्य को ईमा. नदारी से अपनी श्रेणी देखना चाहिये और अपीपर पहुँचने की कोशिश करना चाहिये । 1 इन भेदों का उपयोग मुख्यतः श्रात्म-निरीक्षण के लिये है। मैं इस श्रेणी में हूँ, तू इस श्रेणी में है, मैं तुमसे ऊँचा हूँ, इस प्रकार - कार के प्रदर्शन के लिये यह नहीं है। दूसरी बात यह है कि इन भेटों से हमें आदर्श जीवन का पता लगा करता है । साधा. रगत लोग दुनियादारी के बड़प्पन को ही आदर्श are लेते हैं और उसी को ध्येय मनाकर जीवन यात्रा करते हैं, या उसके सामने सिर झुका लेते हैं उसके गीत गाते हैं, परन्तु इन भेदों से पता लगेगा कि आदर्श जीवन क्या है ? किसके श्रागे हमें सिर झुकाना चाहिये। मनुष्य को चाहिये कि हरएक श्रेणी विभाग के विषय में विचार करे और ईमानदारी से अपना स्थान है और फिर उससे आगे बढ़ने की कोशिश करे }
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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