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________________ सत्याभूत - - - - - - - - MA A -- -- R - - - - - - - - तर्क (डम्मो) अनुभवों के आधार से इसप्रकार विचारकता, 'प्रहीनता और पदार्थों के परस्पर सम्बन्धों का जब पूर्ण निश्चय प्रमाणालान के सहयोग से मनुष्य को परीनक होजाता है तब तर्क होता है । इसकी प्रमाणता धनकर सत्येश्वर का दर्शन करना चाहिये । अपर की सब बातो से अधिक है। ३-समन्वयशीलता (शा) श्रद्धा (गाशो) यह विचार की सीनिपता और परीकता के बाग मनुष्य स्थिरता है जिसके सहारे मनुष्य विचार को कोसत्यदर्शन की सामग्री मिल जाती है। परन्तु कार्यपरिणत करने के लिये नि:शंक बढता है। उस सामग्रीका तब तक टीकरीक उपयोग नहीं हो इसका अधिकार सब से अधिक है। यह कल्पना सकता जब तक उसमे समन्वयशीलता न हो। भावना सम्भावना अनुभव तर्क प्रत्यक्ष आदि मकान बनाने की सब सामग्री किसी के पानी, किसी का सहारा लेसकती है । यह जिसका पर किस सामान का कहा कसा उपयोग है. इस सहारा लेगी उसीके अनुसार कार्य किया बात का पता न हो, तो सम सामग्री रहन हा भी जायगा । इसलिये इसका अधिक से अधिक मकान न वनगा । यह बात मानसामग्री के बारे महत्व है। श्रद्धा न हो तो तर्क भी बेकार होगा. में भी है। प्रमाण के द्वारा ठीक ठीजानकी श्रद्धा हो तो कल्पना के भी अनुसार प्रवृत्ति होने होजाने पर भी किस मामग्री का कत्र कहा कैसा लगेगी भले ही उसका फल कुछ भी न हो, इस- उपयोग है यह पता न हो तो मानसामग्री भी लिये आवश्यकता इस बात की है कि श्रद्धा को सफल न होगी । समन्वयहीन जानकारी म अधिक से अधिक परामाणिक आधारपर खडा तश्य होसकता है पर सत्य नहीं। समन्वय के किया जाय। द्वारा तथ्य सत्य वनजाता है, अर्थात् कल्याणइन ग्यारह वकन्यो से तर्क के ऊपर काफी कारी बनजाता है। समन्वय सत्याशी को ठीक प्रकाश पड़ता है। कल्पना से उसका भेद, उसकी रूप में मिलाकर कल्याणोपयोगी चीज सैयार कर स्थिरता, श्रद्धा से अनुकूलता प्रादि बातों का पता देने का नाम समन्वय नहीं है यह तो समन्वयाः देता है । भूठी सच्ची बातो को किसी तरह मिला लग जाता है । इस विश्वको समस्याओं को सुल- मास (निशत्तो) है। सत्याश को ठीक तरस माने के मार्ग में बढ़ानेवाला तर्क ही है । प्रत्यक्ष यथास्थान बैठाकर, सत्य का अंग बनाकर, पाल्यातो रास्ते में गड़े हुए मील के पत्थरों की तरह खोपयोगी बनादेशा ही समन्वय हे । हमें सूचना ही देता है। वाकी सब काम तर्क का है । इसलिये तर्क का स्थान विशाल है । वह समन्वय करते समय समन्बयाहजारों प्रत्यदों का निचोड़ होने से अधिक उप भास (निशत्तो) से बचते रहना चाहिये । योगी है। अन्धश्रद्धा के कारण या प्राचीनता इसीलिये साधारण सा का और परिस्थिति के कारण अपनी पुरानी मान्यता प्रो को सुरक्षित विशेष का विचार करना आवश्यक है। कोई रखने के लिये तर्क का विरोध न करना चाहिये। चीज ऐसी होती है जो सामान्यरूप में फल्याण काली है और जिस अवसरपर उसका उपयोग इस प्रकार प्रमाण ज्ञान से मनुष्य को किरा जारहा है उस अवसरपर भो कल्याणकारी परीक्षकता की कसौटी हाथ लगती है । परमाण है इसे उभय-कल्याणकारी, उमर-सत्य, कहना ज्ञान न हो तो प्रमाणो के बलावल का पता न चाहिये। जैसे उसका समन्वय उभय-समन्वय लगे थौर उसके रिना मनुष्य निर्णय न कर सके, (टुम शत्तो) कहलाया पेली में है। साधाइसलिये प्रमाणो के वास्तविक स्वरूप, उनका रणत. मैत्री धर्म है और जिस प्रादमी से हमें बलायल, 'अवसरपर उनकी उपयोगिता आदि मैत्री करना है वह भी मैत्री का पात्र होने से को समझार परीक्षक बनना चाहिये। उसकी मैत्री से स्वपर-कल्याण होनेवाला है इस
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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