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________________ हरिकार्ड - - २१५ यह साधु है । परिस्थिति के अनुसार परि- पहिचाने इसकी वह पर्वाह नहीं करता। प्राजक हो सकता है, स्थिरवासी हो सकता है, उपायों साधनों और परिस्थितियों पर वह सन्यासवेषी हो सकता है गृहस्थवेषी हो सकता विचार करता है इसलिये उसे सविकल्प कह है, दाम्पत्य जीवन बिता सकता है, ब्रह्मचारी रह सकते हैं, परन्तु कर्तव्य मार्ग में दृढ़ रहने की सकता है । वेप, आश्रम, स्थान का कोई नियम दृष्टि से वह निर्विकल्प है। शंका और अविश्वास नहीं है। त्याग, निर्भयता, सदाचार, अपरिग्रहता उसके पास नहीं फटकने पाते। सत्य और अहिंसा और निस्वार्थता की यह मूर्ति होता है। के सिवाय वह किसी की पर्वाह नहीं करता। किसी दिन मानव-समाज का अगर सुवर्ण जनहित की पर्वाह करता है किन्तु वह सत्य अहिंसा की पर्वाह में आजाती है। यह जीवन युग आया तो मानव समाज ऐसे साधुओं से भर की परमोत्कृष्ट दशा है जब समाज ऐसे योगियों जायगा ! उस समय शासन-तन्त्र नाम के लिये रहेगा। इसकी आवश्यकता मिट जायगी। असं से भर जायगा तब वह हीरक युग होगा। यम और स्वार्थिता दे न मिलेगी। ____कर्तव्य मार्ग मे कर्मठता ही मनुष्यता की __संलग्न श्रेणी का मनुष्य पाप का अवसर कसौटी है इस दृष्टि से यहा छ: पद बनाये गये है। जिस समय मनुष्य-समाज प्रसुप्त श्रेणी के आने पर भी पाप नहीं करता। बड़े बड़े प्रलोभनों T असा मनुष्यों से भरा रहता है उस युग को मनुष्य का eam को भी दूर कर देना है। उसके ऊपर शासन मृत्तिका युग (मिट्टी युग ) (मीत हलो ) कहना करने की आवश्यकता नहीं होती। अगर उसका चाहिये । जब समाज सुप्तों से भरा रहता है तब कोई गुरु हो तो वह गुरु के शासन में रहता है परन्तु इसके लिये उसे कोई प्रयल नहीं करना उसे उपल युग या पत्थर युग (खुड हूलो ) कहना पड़ता। उसकी साधुता स्वभाव से ही उस शासन चाहिये। अब मनुष्य समाज जापतों से भर के बाहर नहीं जाने देनी। पथ-प्रदर्शन के लिये जायगा तब उसे धातु युग (मिक हलो) कहेंगे वह सूचना प्रहण करता है परन्तु उसमें असंयम और जब स्थित श्रेणी के मनुष्यों से भर जायगा नही होता। कदाचित अज्ञान सम्भव है-पर _तब उसे रजत युग (बादाम हूलो) कहेगे। जब सयम नहीं। संलग्न श्रेणी के मनुष्यों से भर जायगा तव ६ योगी (जिम्म)-योगी अर्थात् कर्मयोगी। सुवर्ण युग (पीताम हूलो) कहेंगे और जब जीवन का यह आदर्श है । सदाचार, त्याग, योगियों से मानव समाज भरा हुआ होगा तव नि.स्वार्थता इसमें कूट कूट कर भरी रहती है। " वह हीरक युग ( सोचाम हूलो) कहलायगा। यह विपत्ति और प्रलोभनों से परे है। संलग्न विकास की यह चरम सीमा है। यही वैकुण्ठ है, श्रेणी का मनुष्य विपत्ति से ठिठकसा जाता है। भौतिक दृष्टि से मनुष्य किसी भी युग में अपयश से घबरा सा जाता है। पर योगी के आगया हो परन्तु आत्मिक दृष्टि से मनुष्य अभी सामने यह परिस्थिति नहीं आती। वह यश अप पत्थर युग में या मिट्टी युग में से गुजर रहा है। यश मानापमान की कोई पर्वाह नहीं करता। हा करता। हा, संलग्नों की संख्या भी है और योगी भी हैं फजाफन की भी पर्वाह नहीं करता किन्तु कर्तव्य कर तु तव्य परन्तु इतनी सी संस रासे सुवर्णयुग या हीरकयुग किये चला जाता है। असफलता भी उसे निराश नहीं जाता, इसके लिये उनकी बहुलता चाहिये। नहीं कर सकती। वह घर में हो या वन में हो. " वह कत्र आयगा कह नहीं सकते पर उस दिशा गृहस्थ हो या संन्यासी हो, पर परमसाधु है, में हम जितने ही आगे बढ़े कर्तव्य पदों पर चढ़ने स्थितिप्रज्ञ है, अहंत है, जिन है, जीवन्मुक्त है, की हम जितनी अधिक कोशिश करें, उतना ही वीतराग है, प्राप्त है। कोई उसे पहिचाने या न अधिक हमारा कल्याण है।
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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