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परीक्षा कैसे की जा सकती है ?
यहां यह बात ध्यान में रखना चाहिये कि अवसर की महत्ता से किसी के व्यक्तित्व को धक्का नहीं लगता। महत्ता दो तरह की होती है। व्यक्तित्व महत्ता और अवसर - महत्ता ।
व्यक्तित्व महत्ता ( सूमोवीगो ) - गुण योग्यता आदि से जो महत्ता प्राप्त होती है, जिससे मनुष्य का व्यक्तित्व बनता है और अपेक्षाकृत जो स्थायी होती है, वह व्यक्तित्व महत्ता है।
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अवसर - महत्ता ( चंसोबीगो )- किसी खास अवसर के लिये जो महत्तो मिलजाती है, जो स्थायी नहीं होती, वह अवसर महत्ता है जैसे विवाह के अवसर पर दूल्हे को जो महन्त मिलजाती है, स्वयंवर में कन्या को जो महत्ता मिलजाती है, किसी सभा में एक आदमी को प्रमुख बनने से बैठक भर को जो महत्ता मिलजाती है ये सब अवसर महत्ताएँ हैं । सत्यपरीक्षक को ओ थोडी बहुत मद्दता मिलती है वह स्वयम्वर की कन्या के समान मिली हुई अवसर महत्ता है। इस अवसरमहत्ता से महान व्यक्तियों के व्यक्तित्व का अपमान नहीं होता। दुनिया में ऐसी महत्ताएँ छोटों बड़ों सभी को मिलती हैं। इसके बिना काम नहीं चल सकता। इन सत्र बातों का विचार कर सत्यदर्शन के लिये मनुष्य को परीक्षक चनना चाहिये, भले ही वह विनय परीक्षक ही बने। विनय परीक्षा के लिये भी छाती नता की आवश्यकता है । उसका विनय से विरोध नहीं है ।
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कोई कोई अनुभव के नाम से अपनी कल्पनाओं को पेश कर दिया करते हैं। ऐसे लोग विचारकता और अदीनता रखने पर भी ठीक ठीक परीक्षा नहीं कर सकते । इसलिये प्रमाण रूप से पेश की जाने वाली बातो का कहां कितना मूल्य है, यह जानना जरूरी है।
शास्त्र का उपयोग ( ईनोडशो ) शास्त्र एक उपयोगी और आवश्यक प्रमाण है फिर भी पूर्ण विश्वसनीय नहीं, क्योकि एक ही विषय पर भिन्न भिन्न शास्त्र भिन्न भिन्न कथन किया करते हैं । इसलिये शास्त्र के नाम से किसकी बात मानी जाय ? साधारणत लोग अपनी परम्परा या अपने विशेष सम्पर्क के शास्त्रों को प्रमाण मानते हैं । पर यह तो अकस्मात् की बात है कि हम अमुक परम्परा में पैदा हुए या अमुक ग्रंथ हमारे विशेष सम्पर्क में आये । दूसरा आदमी दूसरे सम्प्रदाय से पैदा हुआ, या दूसरे ग्रंथ उसक विशेष सम्पर्क में आय इसलिय उसे दूसरे प्रथ प्रमाण होगे। यह प्रमाण न कह लाया मोह कहलाया । इस तरह से सत्य के दर्शन नहीं हो सकते।
प्रमाणज्ञान (नीपोजानो)
परीक्षकता के लिये तीसरी बात है प्रमाणज्ञान की । वहुतसे लोग परीक्षक बनने की कोशिश | करते हैं परन्तु प्रमाण को कितना महत्व | देना चाहिये इसका ठीक ठीक ज्ञान न होने से वे सत्यपरीक्षक नहीं पाते। कोई कोई लोग शास्त्र हैं उसके आगे त्यात ते, कोई तर्क और तर्कामास का अन्तर ही नहीं समझते,
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पर अगर शास्त्र का बिलकुल उपयोग न किया जाय तो भी सत्य के दर्शन कठिन होजाते हैं। शास्त्र चिरकाल से प्राप्त हुए अनुभवों तक आदि के संग्रह के समान हैं । यह हो सकता है कि कोई अनुभव आदि भ्रमपूर्ण या विकृत रहे हो परन्तु उनके पीछे सत्र अनुभवो तर्कों आदि का उपयोग बन्द कर दिया जाय तो मनुष्य का विकास ही रुक जाय |
पुरानी पीढियों के अनुभवों को शास्त्र द्वारा प्राप्त कर मनुष्य आगे बढता है। अगर वह पुराने अनुभवों को शास्त्र आदि के द्वा प्राप्त करे और शुरू से ही स्वय सत्र अनुभव करे तो हजारों वर्ष के अनुभव दुहराने मे ही उसकी सारी शक्ि और जिन्दगी पूरी होड़ाय, का बढ़ने का मौका ही न मिले। विकास के लिये पुराने तथा दूसरे लोगों के अनुभवों से लाभ उठाना जरूरी है इसी से मनुष्य शीघ्र आगे बढ़ सकेगा।