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________________ दृष्टिकांड - - - n ama-men- - - - - इसप्रकार शास्त्र पूर्ण विश्वसनीय प्रमाण न प्रगट कर रहा है। हां। अगर किसी बात के होनेपर भी उसका पूरा उपयोग है। जैसे न्याया- कोई दूसरे जबर्दस्त प्रमाण मिलें और पता लगे लय में गवाहों का स्थान होता है उसी प्रकार कि अमुक कारण से अमुक आविष्कार लुप्त सत्य के न्यायालय में शास्त्रो का स्थान है। होगया था तो उसको प्रमाण माना जाय। यह अगर गवाहो से काम न लिया जाय तो न्याय भी देखना चाहिये कि किसप्रकार उस युग की करना कठिन है, अगर गवाहो की बात को पूर्ण वैज्ञानिकता विकसित हुई थी । विकास की अन्य प्रमाण मानलिया जाय तो परस्पर विरोधी गवाही अवस्था के विचार से भी इसमें सहायता मिल के वक्तव्य के कारण न्याय निश्चित करना और सकती है । इसप्रकार सम्भवता का विचार करना भी कठिन है। इसलिये बीच का निरतिवादी मार्ग चाहिये। यह है कि गवाहो की बात सुनी जाय और अपने विवेक से उनके सत्यासत्य की जाच की जाय, ३-अहितकर न हो। फिर न्याय दिया जाय। जो बाते प्रत्यक्ष अनुमान से सिद्ध है, उनकी शास्त्र का मतलब यह है कि अमुक व्यक्ति बात दूसरी है, वे तो मान्य हैं ही, परन्तु जिन्हें अमुक बात कहता है। पर दूसरे व्यक्ति दूसरी बात जो प्रत्यक्ष अनुमान से सिद्ध नहीं कर सकता भी तो कहते हैं, ऐसी हालत में शास्त्रकार कितने । उसके लिये शास्त्र का उपयोग है। पर ये तीन भी पुराने या नये या महान क्यों न हों उनके बात दखलाना चाहता कहने से ही कोई बात प्रमाण न मानी जायगी। प्रत्यक्षोपम शास्त्र (इन्दूर ईनो) इससे शास्त्र का या शास्त्रकार का अविनय न व्यवहार में बहुतसी चीजें ऐसी होती हैं समझना चाहिये। यथायोग्य आलोचन परीक्षा जिन्हे हमने देखा नही होता पर उनकी प्रामाणिउपपरीक्षा विनयपरीक्षा करने में अविनय नहीं कता प्रत्यक्ष के समान होती है । जैसे बहुत से होता। आदमी ऐसे हैं जितने इंग्लेण्ड अमेरिका रुस शास्त्र की किसी बात को प्रमाण मानते चीन जापान आफ्रिका आदि नहीं देखे, भारतमें समय हमें निम्नलिखित बातें देख लेना चाहिये। रहने पर भी बहुतों ने बम्बई कलकत्ता मद्रास -वह किसी दसरे प्रबल प्रमाण ( प्रत्यक्ष आदि भी नहीं देखे, सिर्फ भूगोल की पुस्तकों में या तर्क) से खरिइत न होती हो। या समाचार पत्रों में पढ़े हैं, लोगों के मुंह से २-देशकाल परिस्थिति के अनुसार सम्भव सुने हैं, पर इनकी प्रामाणिकना इतनी अधिक मालूम हो । बहुतसी बाणे आज सम्भव है पर है कि इन्हें शास्त्र सरीखा विवादापन्न नहीं कह पुराने जमाने में सम्भव नहीं थी। उस समय समयपि इनका ज्ञान बहुतों को है तो शास्त्रसिर्फ कल्पना आकांक्षा अतिशयों आदि के ज्ञान ही, फिर भी इनकी प्रामाणिकता इतनी कारण शास्त्र में लिख दी गई थी। वे श्राज के प्रवल और निर्विवाद है कि इन्हें प्रत्यन यातर्क की युग की से सम्भव होने पर भी पुराने ग्रग में कोटिमे रक्खा जासकता है । जिस हमने प्रत्यक्ष सम्भव नही मानी जासकी। जैसे-रेलनार नहीं किया किन्तु सेकड़ों ने प्रत्यक्ष किया मोटर, हवाई जहाज, कपड़े आदिको मिलें, सिनेमा, और जिसमें अप्रामाणिकता की कोई सम्भावना वेतार का तार, ध्वनि प्रसारण, प्रामा मोन आदि नहीं है उस शास्त्र या पुस्तकीय ज्ञान कोरपन या हना सकिगारमा जानता में दिखाई तकरार तर्क के समानहीरवल मानना चाहिये. उसे पत्यनादेते हैं, ये सब पात्र सम्भव है पर हशा दोहजार पम शास्त्र कहना चाहिये। वर्ष पहिले कोई उनका चित्रण करे तो कहना । जिन बातों में यह पता लगे कि गे चाहिये कि वह कल्पना था उस युग की श्राकाला किसी पनके कारण या अन्धविश्वास के १२५
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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