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________________ हाएकाड । २१३) - - - - - - - -- - - - - - -- - -- - - इनके कार्य चाल और निल होते हैं। संस्कार पड़े हैं वे इतने प्रवल होते हैं कि जानते इन्हें ज्ञान तो होता है पर सच्चा नहीं समझते हुए भी यह कर्तव्य नहीं कर पाता। इस होता । फलाफल के विचार में इसकी दृष्टि दर के लिये इसे पवाताप भी देता है। सुप्त की तक नहीं जाती। कोई सेवा करेंगे तो वन्त ही अपेक्षा इसमें यह विशेषता है कि यह अपने दोषों विशाल फल चाहेंगे। तुरन्त फल न मिला तो को और त्रुटियों को समझता है तथा स्वीकार सेवा छोड़ बनेंगे। पगर घोमा फल मिला तो भी करता है। उन्हें छुपाने की अनुचित चेष्टा नहीं उत्साह टूट जायगा और भागने की बात सोचने करता 1 सुप्त श्रेणी का मनुष्य ऐसा विवेकी नहीं लगेगे। यातों में खूप आगे रहेंगे परन्तु काम में होता। वह अपनी त्रुटियों को गुण साबित करने पोछे। दूसरे को उपदेश देने में परम पंडित और की चेष्टा करेगा । कायामा को चतुराई या दूरदेशी स्वयं पाचरण करने में पूरे कायर, और अपनी कहेगा, इस प्रकार स्वयं धोखा खायगा या दूसरों कायरता को छिपाने के प्रयत्न में काफी तत्पर । "" को धोखा देगा । जब कि जामन श्रेणी का मनुष्य ऐसा न करेगा। अपनी शक्ति का वास्तविक उपयोग कैसे । काना इसका ज्ञान इन्हें नहीं होता था वातूनी वह मार्ग देखता है, मार्ग पर चलने की ज्ञान होता है, विश्वास-पास सच्चा ज्ञान नही इच्छा भी करता है, पर अपनी शक्ति मे पूर्ण होता । अमुक तो करता नहीं है मैं क्या करूं? विश्वास न होने से और संस्कारों से आई हुई व्याख्यान तो देशाता हूँ फिर संगम सेवा सहायता । स्वार्थ-वृत्ति की कुछ प्रबलता होने से कर्तव्य में का क्या काम ? मुझे क्या गरज पडी है ? मैं बड़ा , विरत सा रहता है। परन्तु इसमें कपार्यों की श्रादमी हूँ, मुझे मुफ्त में ही बड़प्पन और यश एवलता नहीं रहती, अथवा वह खलता नहीं मिलना चाहिये। इस प्रकार की विचारधाराएँ रहती जैसी सामान्य मनुष्य में रहती है। इनके हृदय में जमा करती है जिनकी भंघरों में जाग्रत श्रेणी के मनुष्य के हृदय में एक कर्मठता फंसी रहती है। कभी कमी इनकी कर्म. रकार का असन्तोप सदा रहना चाहिये। जिसे उता जामत भी हो जाती है तो स्वार्थ के कारण वह कर्रान्य समझता है उसे वह कर नहीं पाना, वह विपरीत दिशा में जाती है। बड़े बड़े दिग्वि- इस बात का उसे असन्तोष या खेद रहना मावलयी सबाट रायः इस श्रेणी के होते हैं। श्यक है। अगर उसे यह सन्तोष होजाय कि में समावस्था मनुष्य की वह अवस्था है जब आखिर समझता तो हूँ, नहीं कर पाता तो नहीं मनुष्य का पांडित्य तो जाग्रत हो जाना है परं सही, सायत नेणी का तो कहलाता हूँ यही क्या विवेक जायत नहीं होता। इसलिये उसमें सच्चा क्रम है, इस प्रकार का सन्तोष आत्मवाचकता साप त्याग नहीं था पाता और जहा स्वार्थ. और परवञ्चकता का सूचक है। ऐसी हालत में त्याग नहा है, वहा संयम नहीं हो सकता। इस वह जागत श्रेणी का न रहेगा सुप्त श्रेणी में प्रकार यह पौडत होनेपर मी विवेकहीन असंयमी चशा जायगा। पराणी है। जामत श्रेणी का मनुष्य कर्तव्य की परेरणा . ३ जापत ( जिय)-जीवन के वास्तविक होने पर इस तरह का बहाना कभी न बनायगा विकास की यह प्रथम श्रेणी है। यह मतस्य का कि मैं तो जाग्रत श्रेणी का मनुष्य हूँ कर्तव्य विवेक जाग्रत होता है, दृष्टि विशाल होती है, करना मेरे लिये अनिवा नहीं है। वह कर्तव्य स्वा जगत को छोड़कर वह वास्तविक जगत में को लालच की दृष्टि से देखेगा और उसे पकड़ने एवेश करता है। फिर भी इसमें कर्मठता नही का प्रयत्न करेगा। अधिक कुछ न बनेगा तो होती या नाममात्र की होती है। पुराने को यथाशक्ति दान देगा । जो मनुष्य सचमुच जामत
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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