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पृथ्वी को सूर्यके चारों ओर घूमती हुई माना, इस- वर्णन आदि खण्डित किये जाते हैं, ईसाई-धर्म एकार मनुष्य सत्य के मार्ग में आगे बढा । अब के नामपर ईसामसीह मनुष्य पिता के बिना कैसे होसकता है कि कल गुरुत्वाकर्षण के बदले किसी पैदा हुए आदि वातो का खण्डन किया जाता है, दूसरे सिद्धान्त का पता लगे, इससे वे उलझनें इसलाम के नामपर जन्नत बहिश्त हूरे गिलमे भी सुलझजायें जो गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त से आदि का खण्डन किया जाता है। इन सब नहीं सुलझ पाती तो यह सत्यके और निकट खण्डनों से वास्तविक धर्म का खण्डन नहीं होता। पहुंचना कहलायगा। गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त ये तो धर्म के उपकरणमात्र है। जिस जमाने में कदाचित् आगामी कल के सिद्धान्त टि से जहां जिन लोगों मे तर्क इतना प्रवल नहीं था असत्य कहाजासके पर भूतकाल के अचला और वहा इनका उपयोग कर लिया गया, आज तर्क चपटी पृथ्वी के सिद्धान्त से तो हजार गुणा सत्य बढ़गया तो इन्हे हटा देना चाहिये, दूसरे उपहै । इसलिये सत्य की खोज मे स्थिर होने के करण दूसरे ढंग से लाना चाहिये इससे धर्म के कारण भावना का कल्पना का या श्रद्धा का मूल्य प्राण न निकलेंगे। बढ़ नहीं जाता. और अस्थिरता के कारण तर्क
दूसरी बात यह भी है कि धर्म देशकाल के का मूल्य घट नहीं जाता । स्थिरता-अस्थिरता का
अनुसार मानव जीवन की चिकित्सा करता है। विचार छोडकर देखना यही चाहिये कि सत्य के अधिक निकट कौन है और किसके जरिये पहुंचा
देशकाल वस्ल जानेपर चिकित्सा की औपध' जासकता है। कल्पना या भावना के जरिये सत्य
बेकार होसकती है, अब अगर तर्क उसे बेकार की तरफ गति नहीं होती या नाममात्र की होती
सिद्ध करता है तो उससे क्यों घबराना चाहिये ? है, किन्तु तर्क के जरिये उससे हजारो गुणी
धर्म ने अपने देशकाल के अनुसार काफी काम होती है।
किया, उसके दृष्टिकोण के अनुसार अगर आजका
देशकाल देखकर कुछ अदलबदलकर काम करना -कुछ लोग तर्क के विरोधी इसलिये हो
पड़े तो इससे धर्म का स्या नुकसान है ? तर्क तो जाते हैं कि उससे उनके धर्म का खण्डन होने लगता है। धर्मपर तो उनका अटल विश्वास होता पास लेजाता है, इस कारण तर्क से वेश क्यो.'
इस काम मे उसे सहायता देता है, युगसत्य के है और उसे कल्याणकर समझते हैं इसलिये जव
करना चाहिये ? तर्क उसका भी खण्डन कर देता है तब वे तर्क के निन्दक बनजाते हैं। पर इस विषय में उनकी ५-थोड़ा बहुत धोखा खाने की सम्भावना, भूल यह होती है कि वे धर्म और धर्म के बाहरी हरएक प्रमाण में है। सब से जबर्दस्त प्रमाण जो उपकरणों के भेद को भूल जाते हैं। समान के प्रत्यक्ष कहा जाता है उसमें भी मनुष्य धोखा ख जीवन को सुखमय बनाने की स्वेच्छा-प्रधान जाता है । साप को रस्सी या रस्सी को साप सम व्यवस्था का नाम धर्म है। धर्म के खंडन के नाम- झता है। सौर जगत् की दृष्टि से स्थिर सूर्यपर इसका खण्डन प्रायः नहीं किया जाता। बलवा हुआ देखता है। सूखी बालू में पानी किन्तु इस व्यवस्था को टिकाने के नामपर जो का ज्ञान कर जाता है, इत्यादि । इसीप्रकार कमी मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालनेवाली कल्पनाएँ की कभी मनुष्य में तके भी धोखा खाजाता है। पर जाती हैं उनका खण्डन किया जाता है। जैसे- प्रत्यक्षमें धोखा खानेसे जिसप्रकार हर प्रत्यक्ष हिन्दूधर्म के खण्डन के नामपर उसके पितृलोक अप्रमाण नहीं मानता प्रत्यक्ष और प्रत्यक्षामास )
आदि की व्यवस्थाएँ, पौराणिक कथाएँ आदि भेद करता है उसी प्रकार अगर तर्क में धोखा खण्डित की जाती है, जैनधर्म के नामपर उसके खानाय तो उसे भी अप्रमाण नहीं न लाख योजन के ऐरावत हाथी, जम्बूद्वीप आदि चाहिये । तर्क और तकौमास का भेद करन की विचित्र कल्पनाएँ, समवशरण आदि के चाहिये । तर्क को प्रमाण और तक मास को श्रम