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________________ सत्यामृत प्रादि । सी अवस्था असम्भव तो है ही, किंतु अशुद्ध है । इसलिये यह समझन गलत है कि जो इससे भी बुरी बात यह है कि यह सब बेकार है। आदमी एक जगह पैठनायगा, मन वचन काय श्रात्मा ज्ञानम्वरूप आनन्द रूप है और ज्ञान और को स्थिर करलेगा सो शुद्ध होजाएगा और श्रामन्न स्वयं एक विकल्प है, क्योकि उसमें नाना सत्कार्यों में लगा रहेगा तो अशुद्ध होजायगा । नरहकी अनुभूतियाँ हैं ऐसी अवस्था में आत्मा को पूर्ण एकापता से मछलीपर ध्यान लगानेवाला निर्विकल्प बना देने का अर्थ है उर्स ज्ञानशून्य बराला अशुद्ध है और विश्वहितैपिता से दुनिया श्रानन्दशून्य बनाकर जड बना देना। भर पर नजर डालनेवाला साधु शुद्ध है। मात्मा में थगर भलाई ले न हो. यही कारण है कि तीर्थकर पैगम्बर अबबुराई से हूँप न हो, गुरजनों में गुणीजनो में तार कहलानेवाले व्यक्ति जीवनभर समाजसेवा उपकारियों में आदर भक्ति कृतज्ञता न हो, में लगे रहते हैं फिर भी शुद्धात्मा बने रहते हैं। जीवित रहने के लिये खानपान आदि की चेष्टा जगत की व्यवस्था में लगा रहता है फिर भी वह जो लोग ईश्वरवादी हैं उनके अनुसार ईश्वर नारे खानपान सामग्री के लिये अर्जन का शुद्धात्मा है। इसलिये निश्चलता को शुद्धि और कोई अन्न न हो, तो ऐमा जीवन एक तो टिकेगा नही, अगर दिक भी गया तो ममी (मिश्रके अस्थिरना को अशुद्धि मानना असत्य है । पर मिमिडा में निकली हुई हागं वर्ष पुरानी बहुत से लोग या सम्प्रदाय आत्मशुद्धि के ला) को तरह वह बेकार होगा। जगत को नामपर इसी तरह के अनेक अनिष्ट अर्थ मानते तो इससे कोई लाम हैन पर जड़ता में है इसलिये आत्मशुद्धि को प्रेय मानना ठीक समाजाने से, या एक तरह के नशे में लीन होजाने से उसमय भी कोई लाभ नहीं । व्यवहार में .... हा। जो प्रात्मशुदधि या ध्यान श्रादि को जो इससे असीम हानि होगी वह यह कि निर्विफन्प समाधि यादि की साधना के नामपर जारी है उसे सुसंवर्धन ध्येय के साधन रूप में प्रभाविया (मुस्तयोरा ) की एक पल्टन गडी अपनाया जासकता है पर सी हालत में उसे ताजायगी। उपध्येय कहेगे, ध्येय नहीं। प्रश्न-निर्विकल्प समाधि श्रादि हम छोड म लोग स्थिरता को शुद्धि और चंचलता देते हैं पर कोच मान माया लोभ आदि कपाया को अदि मानने लगते हैं, जबकि शुद्धि का त्याग करना अात्मशद्धि है यही अकषा पुलिश इममेरो नियत सम्बन्ध नहीं, यता रूप श्रात्मशुद्धि को ध्यय माने तो क्या गगटे में पानी मजाय नो वह शुद्धन हानि है इसमें अनिष्टार्थता क्या है ? पहागा, पर श्राममान में बादान के रूप में उत्तर-श्रात्मशुद्धिक नामपर जैसी प्रकपाIf पलना सहर का उधर नोडता रहे तो यता का रूप माना जाता है वह सुग्ध की तरह अशुद्ध नही जागा नचल पानी भी शुद्ध निर्विवाद नहीं है, और अनिवार्थ भी है। क्रोध PHPIR, श्री अशुहोसकता है और धिर श्रादि गृत्तियों का पूर्णनाश हो सकता है या नही. पा भी शुद्ध होमनार प्रशुद्ध होस अथवा उनके पूर्णनाश से चैतन्य को जामत THRIRIT में पानी चल रोनेपर भी अवस्था रहेगी कि नहीं ये याने त्रिवानप्रस्त या गुगा, गटर में माता या पानी चंचल होने अविश्वसनीय है । मोर विचार से वही मालूम पा भी गुमा पानी जमीन में ना कि कोष मान माया लोभ का वर्णनाश पक्ष पनि मा, योगन में भ य ना किया आमझना, न दिया जाना चाहिये, for pr गनेस भी शुर और इनश पुरएशेष गेश रस्ता , सबिट म पानी far बनेपर भी हर को अमानाना प्रारमयां
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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