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हष्टिकांड
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दित किया जासकता है यह करना चाहिये, यही सका। ऐसी हालत में आत्मशुद्धि को ध्येय मानने इष्ट है, इनका पूर्णनाश अनिष्ट है। अन्यायपर का कोई अर्थ नहीं। ध्येय तो सुखवर्धन ही रहा आवश्यक क्रोध आना धर्म है, अन्यायपर और आत्मशुद्धि उपध्येय हुआ। उपेक्षा या लापर्वाही करना निर्वलता या कायरता ४-प्रशान्त जिज्ञासा-(नोशम जानिशो) है अधर्म है। अभिमान से दूसरों का अपमान चौथी बात यह है कि आत्मशुद्धि से जिज्ञासा करना पाप है, अहंकारियों या अत्याचारियों के शान्त नहीं होती । आत्मशुद्धि किसलिये, यह सामने आत्मगौरख या लोकगौरव या न्याय- जिज्ञासा बनी ही रहती हैं। प्राणीको सुख चाहिये। गौरव की रक्षा करना धर्म है। स्वार्थवश दूसरो आत्मशुद्धि से सुख मिलता हो तो आत्मशुद्धि को छलना पाप है किन्तु उसके कल्याण क लिये ठीक है, नहीं मिलता हो तो आत्मशुद्धि बेकार अतथ्य भाषण पाप नहीं है। लोभ पाप है पर है। स्वतन्त्रता, मोक्ष, ईश्वर, आत्मशुधि, आदि प्रेम सितव्ययिता आदि उसीके अच्छे रूप पाप सब के बाद भी यह प्रश्न खडा होसकता है कि नहीं हैं। मतलब यह कि स्वपरकल्याण के लिये यह सब किसलिये ? किन्तु सुख के बाद यह इनकी जहा जितने जैसे रूपमें आवश्यकता है जिज्ञासा शान्त हो जाती है इसलिये विश्वसुखयवहां उनको रखना चाहिये। पूर्ण रूप मे अक- र्धन को अंतिम ध्येय और कर्तव्य निर्णय की। पाय होनेपर मनुष्य बेकार या जड़तुल्य होजायगा। कसौटी मानना चाहिये। अकषायता के प्रेय को अपनाने के भ्रम मे पड- प्रश्न-सुखवर्धन ध्येय ठीक होनेपर भी कर बहुत से जैन प्रथा मे म महावीर के जीवन उसमे एक बड़ी भारी आपत्ति यह है कि उसका की विडम्बना होगई है । वे भोजन नहीं कर दुरुपयोग काफी होसकता है। सुखवर्षन के नामसकते. किसी से बात नहीं कर सकते, खेच्छा से पर सभी स्वार्थियो और पापियो को अपना कही आ जा नहीं सकते, आदि अस्वाभाविक स्वार्थ या पाप छिपाने की पोट मिलजाती है। चित्रण पूर्ण अकषायता के दुष्परिणाम है। किसी पाप को सुखवीक सिद्ध करना जितना इसलिये अकपायता का ध्येय भी अनित है। सरल है उतना सरल उसे आत्मशुद्धि रूप सिद्ध जितने अंश मे वह स्वपरकल्याणाकरी अर्थात् करना नहीं है।
करना नहीं है। . विश्व मुग्ववर्धक है उतने अंश मे उपध्येय के रूप
, उत्तर--विश्वसुखवर्धन की कसौटीपर कसमें उसे माना जासकता है।
कर कोई कार्य किया जाय तो उसमें पाप और.
दुस्वार्थ नहीं छिपसकता । भूठी दुहाई देकर कोई ३-विपक्षानयना (राफशुजा) आत्मशुद्धि पाप छिपाने को दुरुपयोग नहीं कहते। इसे दुसका अर्थ अनिश्चित या अनिष्ट होने से अन्त मे पयोग कहा जाय वो ऐसा दुरुपयोग तो किसी उसका यही अर्थ ठीक माना जाता है कि जिसके भी सच्ची बात का होसकता है। श्रात्मशुद्धि का द्वारा मनवचन तन की प्रवृत्ति स्वपरकल्याण भी होसकता है। श्रात्मशुद्धि की ओट में मनुष्य कारी अर्थात् विश्वसुखवधक हो, वह आत्म- अकर्मण्य बनजाता है नम्मी धमएहो और लाप. शुदधि है और जिसके द्वारा मन वचन तनकी वोह बनजाता है। उसमें एक तरह की ठन्डी प्रवृत्ति अकल्याणकारी या दुखवर्भक हो वह करता आजाती है। अन्याय अत्याचार को अशुद्धि है । ऐसी हालत में आत्मशधि सुखब- 'रोकने की शक्ति होनेपर भी और कर्तव्य का अंग धन के आश्रित होजाती है। सुखवधन को हटा- होनेपर भी उसे न रोकना ठंडी क्रूरता है। कर हम आत्मशुद्धि को ध्येय बनाना चाहते थे, आत्मशुद्धि के नामपर वो उदासीनता लापर्वाही इसलिये इस प्रकरण में सुखवर्धन आत्मशुदधि आदि का नाटक किया जाता है वह दुरुपयोग का प्रतिस्पर्धा या विपक्ष था और उसी प्रतीस्पर्धी तो स्पष्ट ही है। का श्राश्रय लेनेपर आत्मशुद्धि का अर्थ ठीक बैठ कहा जासकता है कि जहा प्रात्मशुधि