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________________ सकल देगा। इसी प्रकार अगर हम कोई पाप उससे भिन्न है क्योकि नाशनिक पद्धति से सिद्ध करते हैं पर दुनिया की पात्र में पूर झांककर किये हुए ईश्वरवाद अनीश्वरवाद की उसे पाह उसमें अपयश से बचे रहते है तो भी वह पाप नही है। उसकी दृष्टि स्वतन्त्र है। निरर्थक न जायगा क्योकि ईश्वर की प्राग्ला में धूल नही मोकी जामाती, वह पाप का पल . परलोकवाद या आत्मवाद ( इम्यवादो)कमी न कभी व्यवश्य देगा। इस प्रकार गुप्न पाप मात्मा तो हरएक मानता है पर आत्मा कोई से भी भा और गुम पुएर सभी सन्तोप पैदा भूलवस्तु नव ] है ना नहीं, इसी पर विवाद होना इन यार का फल है। साविवाद धर्म है। आत्मा को नित्य मानने से परलोक तो सिद्ध को दृष्टि में सत्य है, भले ही ईश्वर हो या न हो हो ही जाना है क्याकि आत्मा जब नित्य है तब अथवा सिद्ध हाना हान होता हो। पर अगर मरन के बाद कही न कहा जायगा और कही न इवरवाट का यह अह कि ईश्वर दयालु है प्राथ. कहा से मरकर पापा भी होगा वही परलोक है। नामो से खुश होनार यह पार माफ कर देना है HTS यद्यपि आत्मा को अनित्य या अतस्य मानकर इसलिये पाप को चिन्ता न करना चाहिय ईश्वर भी परलोक बन सकता है पर धर्म की दृष्टि में को खुश करने की चिन्ता करना चाहिये तो यह इससे कोई अन्तर नहीं होता । जैसे पानी ईश्वरवाट धर्मशास्त्र को नाम मिया है भले ही पाक्सिजन आदि के संयोग स बना है फिर भी नमानशास्त्र इश्वरवाद को सिद्ध कर देना हो। उसका यह रासायनिक आकर्षण भाफ बनने पर इसी प्रकार अनीश्वरवाद के विषय में भी भी नहीं टूटता, इस प्रकार संयोग होनेपर मी है । अगर अनीश्वरवाट का यह अर्थ है कि ईश्वर भाफ और पानी के रूप में अनेक बार पुनर्जन्म युक्ति तर्क से सिद्ध नहीं होता पुण्य पाप फल की। फरता रहता है उसी प्रकार आत्मा संयोगज व्यवस्था प्राकृतिक नियम के अनुसार ही होती हार मा पुनजन्म कर सकता है। इस प्रकार है. मे पर भी विप खाया जाय और उससे आत्मवाद और परलोकवाद में अन्तर है। म. अपराध की क्षमा याचना की जाय तो विप के बाद आत्मा को नित्य सिद्ध करता है और पर लोकवाद आत्मा को अनेक भवस्थायी सिद्ध ऊपर इसका कुछ प्रभाव न पड़ेगा, थिय खान का करता है । पर इन दोनो का धर्मशास्त्र में एकसा निश्चित दण्ड प्राकृतिक नियम के अनुसार उपयोग है क्योंकि धर्मशास्त्र आत्मा की नित्यता मिलगा , इसी प्रकार हम जो पाप करते हैं उस और परलोक से एक ही बार सिद्ध करना चाहता का फल भी प्राकृतिक नियम के अनुसार अवश्य है कि पुण्य पाए या फल इस जन्म में दिन मिलता है तो इस प्रकार का शनीश्वरवादकर्मवाद् मिल सके तो परजन्म में अवश्य मिलेगा पुण्य सके सिद्ध हो या न हो धर्मशास्त्र की दृष्टि में सत्य पाप व्यर्थ नही जायगा। यह बान आत्मवाद है। पर अगर अनीश्वरवाद का अर्थ पुण्य पाप के और परतीकवाद में एक सरीखी है । दर्शनशास्त्र फन की अव्यवस्था है इसलिये किसी न किसी तरह अपना स्वार्थ सिद्ध करना जीवन का ध्येय अगर अपनी युक्तियों से परलोक या आत्मा का ६ है, सामूहिक स्वार्थ की या नैतिक नियम की खरान भी करदे तो भी पुण्यपाप फल की दृष्टि। पर्वाह करना व्यथा है तो इस प्रकार का अनीश्वर. से धर्मशास्त्र परलोक या श्रात्मवाद को सत्य - वाढ तर्क-सिद्ध भी हो तो भी धर्मशास्त्र की दृष्टि माना। समिथ्या है। इस प्रकार धर्मशास्त्र ईश्वरवाट दि आत्मवाद का यह अर्थ हो कि आत्मा सम्बन्धी दानिक चर्चा का उपयोग करकं भी तो अमर है किसी की हत्या कर देने पर भी
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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