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फल गण में प्रवृत्त का विधान है। साधु-संस्था धर्म में भी पाया जाता है वह उचित और अमुक
आदि के सर में कहीं निवृत्ति धानना या वृत्त- अंश में आवश्यक है। मूर्ति की पूजाका निषे प्रशनना राई जाती है वह देशकान के अनुसार और मूर्ति के द्वारा दूजा (मूर्ति अवलम्बन) क थी उसमें पान के देसकाल के अनुसार सुधार कर विधान इन दोहों में स्पष्ट हुआ हैलेना चाहिये। मूर्तिपूना प्रमूर्तिपूग आदि का नाम RETI विरोध भी दृष्टि की विफलता का परिणाम है।।
दोनो का उपयोग है रुचि अवसर अनुसार। साधारणतः मूर्तिपूना किसी न किसी रूप में रहनी ही है उनके किसी एक रूप का विरोध
'मूनि बिना पूजा नहीं यह कहते नादान । देशकाल को देखकर करना पड़ता है, जैसे इस
मृति में न भवान है मन में है भगवान ॥ लाम को करना पड़ा। देवदेविया की मूर्तियाँ समझ रहे जो भूल से पत्थर को भगवान । दलबन्दी का कारण थी इसालय वे हटादी गई।
उनकी पूजा व्यर्थ है वे भोले नादान ।। पर मया की पवित्रता, अमुक पल्लर का श्रादर अतिशय माना मूर्ति में किया मूर्ति गुणगान । (जो कि एक तरह का मूति गर) रहा, क्योंकि तो पत्थर पूना हुई दिख न सका भगवान ।। इससे नलबन्दी नहीं होनी थी यलेक एकता होती है न मूर्ति की प्रार्थना है प्रभु का गुणगान । थी। मुनिपूजा के अमुक रूप के विरोध को देख- भ को पढ़ने के लिये है यह ग्रन्थ समान ।। कर किसी धर्म को मूर्तिपूजा का विरोधी समझ जिसे अपढ भी पढ़ सकें सा है यह प्रम लेना व्यापक दृष्टि के अभाव का परिणाम है। बाल वृद्ध सब के लिये सरल मूर्ति का पंथ ।।
यो भणोपम धर्मों को छोड़कर किसी धर्म मनि की न पूजा हुई हु - देव गुणगान । में मूर्ति की पूजा नहीं की जाती, सय में मूर्ति के अवलम्बन ले मर्ति का पूजलिया भगवान ।। द्वारा किसी भगवान की या आदर्श की पूजा की इस प्रकार विशाल दृष्टि से काम लिया जानी है। जहा मूर्ति के द्वारा प्रभु का गुणगान जाय तो धर्मों में विरोध का नम दूर हो जाय । किया जाता है मूर्ति का गुणगान नहीं किया
४ अनुमाता के संस्कारोंका त्याग-समजाना, वहां मूर्ति को पता नहीं कही जासकती भाव में बाधा डालनेवाले कारगों में चौ । कारण मूर्ति का अवलम्बन ही कहा ज्ञासकता है अव हारता के संस्कार हमारा धर्म ही सच्चा लम्बन लेने में कोई बुराई नहीं है। मूर्ति पूजा का बाकी सत्र धर्म झूठे हैं मिथ्यात्व हैं नास्तिक है विरोध करने वाज्ञा मुसलमान मी मसजिद का इस प्रकार के संस्कार बाल्यावस्था से ही डाले अवलम्बन लेता है, उसके विषय में मन में आदर जाते हैं इसका फल यह होता है कि उसे अपनी भी रखता है, किन्ला की तरफ मुंह करके ही एक बात में सच्चाई ही सच्चाई दिखाई देने नमाज पढ़ता है, यह सब मूर्ति अवलम्बन है। लगती है और दूसरे की बातो में बु। ई ही बुराई । दूसरे धर्मों में भी मूर्ति अवलम्बन पाया जाना हिन्दु सोचता है नमाज भी कोई प्रार्थना है। है। 1 युगने जमाने में जहां भलोपम तीर्थो न कोई स्वर संगीत न कोई आकर्षण । मुसलमान के कारण सनि की पूना की जाती थी और उससे सोचता है गलाफाड़ फाड़ कर चिल्लाना भी क्या अनेक अनर्थ भी होते थे, उसे रोकने के लिये कोई प्रार्थना है । एक पूर्व दिशा की बगई करता मति के उपयोग का निषेध किया गया, जैसे है एक पश्चिम की । एक संस्कृन की बराई करता इस्लाम ने किया यह उस जमाने को देखते हुए है एक घरवी की। कुसंस्कारों के कारण वह यह ठीक ही था। पर आजकल मूनि का जो अब नहीं सोच सकता कि कभी किसी को स्वर संग लम्बन है, जो इस्लाम सखेि मूर्तिपूजा विरोधी की जरूरत होती है कभी शान्ति और".."