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________________ [१२] सत्यामृत -- - -- - - - - - - - - - - - नहीं करते उनको भी आप योगी कहे तो यह भी ध्यानयोगी अगर बहुत अधिक हो जाये तो अंधेर ही है। समाज उनके बोझ से परेशान हो जाय पर सत्तर-योगी के जो चार भेट चलाये गये है कर्मयोगी सारा ससार हो जाय तो भी परेशानी चे रूप-मेट हैं. श्रेणी-भेद नहीं, प्रत्येक योग के नहा होगी। पालन में तरतमता होती है । कर्मयोगी हजागे प्रश्न-म महावीर म बुद्ध आदि गृहत्याहो सकते हैं पर वे सब बराबर होगे यह बात गिया और मिक्षाजीथियों को भी आप कर्मयोगी नहीं है। इसलिये विद्या, कला आदि के साथ कहते हैं अगर से कर्मयोगी अधिक हो जाये नो कर्मयोगी बननेवाले और सर्वस्व देकर क्रांति समाज के उपर उनका भी हो जायगा फिर करके कर्मयोगी बनानेवाले समान नहीं है। ध्यानयोग में ही बोझ होने की सम्भावना क्यो ? उनका मूल्य तो योग्यता त्याग और फलपर उत्तर-गृह त्यागी कर्मयोगी अगर मर्यादा निर्भर है। इसलिये अधिक सेवा का महत्व नष्ट मे अर्थात आवश्यकता से नाक हो जायगे ना नहीं होता। इसके अतिरिक्त एक बात यह भी कर्मयोगी तो उचित और आवश्यक कम करना न मूल जाना चाहिये कि भाक्त करने ही है। अब अगर किसी की समाज को वि. कोई मक्ति-योगी नहीं हो जाता, न विद्या कला सकना नहीं है पथवा अावश्यकता जितनी है से सारस्वत-योगी, न गृहत्याग से सन्यास-योगी उसकी पनि अधिक हो रही है उमलिय अधिक और न कर्म करने से कर्मयोगी। ये काम तोहर पूर्ति करने वाले बोभा हो रहे हैं तो एसी अवस्था एक आदमी करता ही रहता है पर इन कामो के करते हुए योगी होना बात दूसरी है। योगी होने में वे बोम बनने वाले कर्म करते हुए भी समीके लिये निष्पाप जीवन सत्वदीपन और सम योगी न कहलायेंगे। इमलिय म महावीर म चुद्र भाव आवश्यक है। रही समाजहित की बात, श्रादि के श्रमण संघ म उतने ही श्रमण कायोगी सो समाजहित अपनी भीनरी और बाहिरी परि रह सकते है जितने समाज के लिये जारी हों। स्थिति पर निर्भर है। कभी कभी इच्छा रहत्ते और उस यावश्यकता के कारण समाज पर बोझ अन सके। हुए भी समाजहित नहीं हो पाता ऐसी हालत मे " समान का अहित न क्रिया आय यही काफी है। उस आवश्यकता का निर्णय कौन ध्यान-योगी कम से कम इतना तो करते ही हैं। करगा। अगर किसी कारण वे समाहित नहीं कर पाते उत्तर-आवश्यकता का निगम कर्मयोगी तो उनका स्थान समाजहितकारियो कर्मयोगियों की सामद्विवेक बुद्धि करेगी क्याकि भातिकारी से नीचा रहेगा पर वे अपनी यात्मशद्धि और कर्मयोगियों की सेवा का मूल्य समाज समझ जीवन्मुक्ति के कारण योगी अवश्य कहलॉयेंगे। नहीं पाता । उनके जीवन काल मे वह उन्हे इन तीनों प्रकार के योगों में कर्म की । सताता ही रहता है और उनके जाने के बाद वह प्रधानता नहीं है क्रितु एकाम मनोवृत्ति की प्रथा उनकी पूजा करना है। क्या धर्म क्या समाज नना है इसलिये ये तीनो ब्यान योग है। क्या गजनीति सम में प्रार सत्र महापुरुषों के जीवन ऐसी परिस्थिति में से गुजरे हैं । इसलिये कर्मयोग (झज्जोजिम्मो) बहुन सी आवश्यकताओं का निर्णय उस समाजसमाज के प्रति शक्त्यनुसार उचित कर्तव्य सेवी को ही करना पड़ता है। करते हुए मीतर से पूर्ण समभात्री रहकर निष्पाप न-ऐसी हालत में हरएक निकम्मा कर्मजीवन विताना कर्मयोग है। चारों योगों में कर्म. योगी बन जायगा । दुनिया माने या न माने, योग श्रेष्ठ और व्यापक है । ध्यानयोग तो एक आवश्यकता हो या न हो, पर वह अपनी सेवा तरह से अपवाद है पर कर्मयोग सब के लिये है। की उपयोगिता के गीत गाता ही रहेगा । व्यर्थ
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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