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________________ - - A - - गाल बजाने को या कागज काला करने को सेवा उत्तर---अच्छे तो दोनो हैं प किसी कडेगा कदाचित अपना वेष दिखाने को भी वह से अधिक अच्छेपन का निर्णय देश काल की सेवा कहे । नाटक के पात्र अगर नाना वेप दिखा परिस्थिति पर निर्भर है थोड़ी बहत आवश्यकता कर समान का मनोरंजन आदि करते हैं तो वह तो हर समय दोनों तरह के कर्मयोगियों की साधु-वेप से कुछ न कुछ रंजन करेगा और रहती है पर जिस समय जिसकी अधिक आबउसको महान सेवा कहेगा । इस प्रकार कर्मयोग श्यकता हो उस समय वही अधिक अच्छा । इस की तो दुर्दशा हो जावेगी। प्रकार दोनो प्रकार के कर्मयोगी अपनी अपनी उत्तर-सेवा की आवश्यकता का निर्णय जगह पर अच्छे होने पर भी गृहत्यागी की विवेक से होगा इसलिये हरएक निकम्मा कम- अपेक्षा गृही कर्मयोगी श्रेष्ठ है । इसके निम्न योगी न बन जायगा । हा, वह कह सकेगा। सो लिखित कारण हैं। कहा करे उसके कहने से हम उसे कर्मयोगी १-गृहत्यागी का बोझ समाज पर पड़ता मानलें ऐसी विवशता तो है नहीं । किसी भी है अथवा नही की अपेक्षा अधिक पड़ता है। तरह के योगी का बोझ उठान कलिय हम वय गृहत्यागी के बंधन अधिक होने से उसकी भावनहीं हैं फिर कर्मयोगी के लिये तो हम और भी श्यकतापूर्ति की नैतिक जिम्मेदारी समाज पर अधिक निश्चित ह । कर्मयोगी तो अपना मार्ग आ पड़ती है। आप बना लेता है। समाज उसका अपमान करे उपेक्षा करे तो मी वह भीतर मुसकराता ही रहता २-गृहत्यागी के वेप की ओट में जितने है वह अपनी पूजा कराने के लिये आतुर नही दंभ छिप सकते हैं उतने गही की ओट में नहीं होता । निकम्मे और दम्भी अपने को कर्मयोगी छिप सकते। भले ही कहें पर विपत्तियो के सामने भीतर की हत्यागी की सेवा का क्षेत्र सीमित मुसकराहट उनमे न होगी और वे उस परमानन्द रहता है उसको बाहिरी नियम कुछ ऐसे बनाने से वचित ही रहेंगे। इस प्रकार चाहे वे कागज पड़ते हैं कि उस में बद्ध होने के कारण बहुत. काला करें, चाहे गाल बनायें चाहे रूप दिखावे सा सेवा-क्षेत्र उसकी गति के बाहर हो जाता अगर वे कर्मयोगी नहीं हैं तो उसका आनन्द है। गृही को यह अडचन नहीं है। उन्हे न मिलेगा । और दुनिया तो सच्चे कर्मयो ४-गृहत्यागी समाज को उतना अनुकगियों को भी नहीं मानती रही है फिर इन्हें रणीय नहीं बन पाता जितना गृही बनपाता है। मानने के लिये उसे कौन विवश कर सकता है ? मतलब यह है कि अपनी समाज-सेवा की श्राव- गृहत्यागी को शान्ति क्षमा उदारता आहि देख कर समाज सोचलेता है कि "इनको क्या ? इन श्यकता का निर्णय करने का अधिकार तो कर्म ' को क्या करना धरना पडता है कि इनका मन योगी को ही है, इससे वह कर्मयोगी बन जायगा प्रशान्त बने, घर का बोझ इनके सिर पर होना उसका आनन्द उसे मिलेगा और समय पाने तव जानते । आसमान में बैठ कर सफाई दिखाने पर उसका फल भी होगा कदाचित न हुआ तो से क्या १ जमीन में रहकर सफाई दिखाई इस की वह पर्वाह न करेगा, परन्तु उस कमयोगी जाय तम वाता । संकोचवश लोग ये शट मुह मानने न मानने, कहने न कहने का अधिकार से भले ही न निकालें पर उनके मन में ये भाव समाज को है। मोनों अपने अपने अधिकार का लहराते रहते है इसलिये गृहत्यागी उनक लिय उपयोग करें इसमे कोई बाधा नहीं है। अनुकरणीय नहीं बन पाना पर गृही के लिये प्रश्न-कर्मयोगी गृह-त्यागी भी होसकता यह बात नहीं है । यह तो साधारण जनना ने है और गृही भी हो सकता है, पर दोनों में मिल जाता है उसके विषय में समाज मे भाव अछ बौन ? नहीं ला सकता वा कमसे कम उनने को नहीला
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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