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________________ दृष्टिकांड {११] ma- - - समाजसेवा है इसलिये विद्यायोगी को कर्मयोगी अंग बननाय तो जीवन इतना पवित्र न रह जायगा क्या न कहा जाय ? कि उसे योगी जीवन कहा जा सके। उत्तर-सरस्वती की उपासना अगर जगत प्रश्न काम भी तो एक जीवार्थ है अगर की सेवा के लिय है तब तो वह कर्मयोग ही है वह जीवन चर्या का मुख्य अंग बन जाय तो अगर वह निवृत्तिमय जीवन बिताने का एक पवित्रना क्यो नष्ट हो जायगी? तरीका ही है तो वह कर्मयोग नहीं है इसलिये उत्तर--काम, मोक्ष की तरह अपने में उस अलग नाम देना उचित है। पूर्ण नहीं है उसका असर दूसरों पर अधिक प्रश्न-विद्याव्यसन के समान और भी पडता है। बल्कि अधिकाशत अपना काम दूसरो निय व्यसन है इसलिये उनका अवलम्बन लेकर के काम में बाधक हो आता है ऐसी हालत में योग साधन करनेवाले रोगियों का भी अलग काम प्रधान जीवन पर-विघातक हुए बिना नहीं उल्लेग्य होना चाहिये । एक आदमी प्राचीन स्थानो रह सकता । काम को पवित्र जीवन में स्थान के दर्शना मे पवित्र जीवन बिताता है कोई पुरानी है पर धर्म अर्थ और मोक्ष के साथ । अकेला खोज में लगा रहना है इनको किसमें शामिल काम हिंसक और पापमय हो जायगा । इसलिये किया जायगा? कामयोग नाम का भेट नहीं बनाया जा सकता। उत्ता-देशाटन यदि जनसंवा के लिये है योगी के पास काम रहता है और पर्याप्त मात्रा तो कर्मयोग है, अगर सिर्फ नये नये अनुभवों का मे रहता है पर वह भक्ति तप विद्या श्रादि की अानन्द लेने को है तो सारस्वत योग है। प्राचीन तरह प्रधानता नही पाने पाता । जीवाओं के साथ चीजों की खोज जनहित के लिये है तो कर्मयोग रहता है एसी हालत में योगी कामयोगी नही है सिर्फ आत्म-सन्तुष्टि के लिय है तो सारस्थत. किन्तु कर्मयोगी बन जाता है। योग है। कविता आदि के विषय में भी यही प्रश्नचित्र संगीत आदि काम के किसी । बात समझना चाहिये। से रूप को जो विधानक नहीं है अपनाकर । • प्रश्न-सारस्वत योग को संन्यास-योग पवित्र जीवन बितानेवाला योगी किस नाम से क्यों न कहा जाय ? दुनियादारी को भूलकर पुकारा जाय । अध्ययन आदि में लीन हो जाना एक तरह का उत्तर-लाओं की शुद्ध उपासना मे संन्याम ही है। ईश्वर के साथ, और ईश्वर न मानते हो तो उत्तर--एक तरह का संन्यास तो भक्तियोग प्रगति के साथ तन्मयता होनी है इसलिये साधाभी है। सभी ध्यानयोग एक तरह के संन्यास रणत कलोपासक योगी, भक्ति-योगी है। अगर हैं फिर भी ध्यानयोग के जो तीन भेर किये गये कलोपासना में नये नये विचार और अनुभवी से निमित्ता के भेद से किये गये है जो का आनन्द मिलता है तो वह सरस्वती की उपाकि पवित्र और निल जीवन में सहायक है। सना हो जाती है जैसे अविना कला । ऐसा । भक्ति और तप के समान विद्या भी निदोष आदमी अगर योगी हो तो सारस्वत योगी होगा। जीवन में सहायक है इसलिन उसका अलग योग यदि उसका कलाप्रेम लोकहित के काम मे पाता बतलाया गया। होगा तो वह कर्मयोगी बन जायगा । प्रक्ष-ल्यानयोग में काम-योग क्यो नहीं प्रत्त-यदि विद्या, कला आदि आराम के माना गया १ कामोसे मनुष्य कर्मयोगी कहला सकता है तो उत्तर-योग के साथ कोई नाम तभी समाजसेवा के लिये सर्वस्व देने वाले उसक लगाया जासकता है जब जीवन-चर्या का प्रधान कल्याण के तिथे दिनरात चोटें खाने वाले क्या अंग बन जाय । काम यदि जीवनचर्या का प्रधान कहलायेंगे ? और जो लोग समाजहित की पर्वाह
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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