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सत्यामृत
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१ योगी साधु
सदाचार के साथ जगत्सेवा भी है। विरक्त यदि २ योगी गृहस्थ
योगी ( मोक्षप्राप्त ) है तो वह योगी की दृष्टि से ३ अयोगी साधु
उच्च है, पर विरक्त को प्रष्टि से साधु से उच्च ४ अयोगी गृहस्थ
नहीं है। सच पूछा जाय तो विरक्त या निवृत्त इसप्रकार अयोगी गृहस्थ से अयोगी साधु साधु की भूमिकामात्र है ! विरक्तयोगी से साधु : उच्च है, किन्तु अयोगी साधु से योगी गृहस्थ उच्च योगी उच्च है। विरक्तता आपवाटिक है। क्योहै। सब से उन योगीसाधु है।
वृद्ध हुए विना विरलता उचित्त भी नहीं है। हा। यहा यह बात भी ध्यान में रखना साधु ता सब समय उचिन है । सन्यासी में चाहिये कि साधु हाना एक बात है, साधसस्था साधु ता उचित मात्रा में नही पाई जाती, इसका सदस्य होना दुसरी वाव और साधवेष लेना लिये उसे अपवाट कहागया अगर संन्यासी का तीसरी बात। समाज से कम लेकर उसे अधिक वेप हो और साधु ता भरपूर हो तब इसे कमसेवा देना और पवित्र जीवन विताना साधुता है। योगी कहेंगे। जैसा कि म. महावीर, म बुद्ध यह साधुता गृहस्थ मे भी होसकती है और साधु आदि के विषय में कहा जाचुका है। संस्था के सदस्य में और साधुवेपी में भी नही विद्यायोग ( बुधो जिम्मो) होसकती है। साधुता रखचेपर गृहस्थ साधु ही विद्या या सरस्वती की उपासना म लीन है। साधुता न रखने पर साधुसस्था का सदस्य होकर, आत्मसन्तोप की मुख्यता से निष्पाप या साघुवेषी भी प्रसाधु है, या गृहस्थ है या जीवन बनाना विद्यायोग या सारस्वतयोग है। गृहस्थ से भो गयाचीता है।
यह भी व्यक्ति की तरह ध्यानयोग है क्योंकि प्रभ-यानयोगी या संन्यास योगीको इसमें कर्म की प्रधानता नहीं है। जो लोग पुस्तक साधु काहा जाय या नहीं?
पढने मे, तथा अनेक तरह के अनुभव एकत्रित
करने में जो सेवाहीन निष्पाप जीवन बिताते हैं उत्तर ध्यानयोगी या संन्यास योगी में वे विद्यायोगी हैं। यह मांग भी वृद्धावस्था में ही साधु ता की मुख्यता तो नहीं रहती, फिर भी वे होना चाहिये। जवानी में सरस्वती की उपासना साधु होसकते हैं, प्रत्यक्ष या अप्रत्यन रूप में
लोकहिन का अंग बनाकर ही की जानी चाहिये । कुछ न कुछ जनसबा उनसे होजाती है। अगर । वे साधु सस्था के सदस्य हैं या सार वेपी हैं साथ
प्रश्न-सरस्वती की उपासना तो एक प्रकार ही योगी हैं तब उनकी गिनती साधु आ मे करना न कहाजाय।।
बुवा है साथ
ही
की भक्ति कहलाई इसलिये इसे भक्तियोग ही क्यों 'चाहिये। क्योंकि मुक्ति प्राप्त कर लेने से उनमें इतनी विशेषना आही जाती है कि वे वचनान
उत्ता-सरस्वती की मूर्ति चित्र या पुस्तक
आदि कोई स्मारक रखकर, अथवा बिना किसी कर, मुफ्तखोरी उनका ध्येय न हो। फिर भी। अकला तो यह है कि संन्यासयोगियों को न
___ स्मारक के सरस्वती का गुणगान किया जाय तो
यह भक्ति कही जासकंगो, परन्तु सारस्वतयोगी गृहस्थ कहा जाय न साधु, किन्तु उन्हे चिरक्त यो
इस प्रकार की भक्ति में जीवन नहीं बिताता, चहा निवृत्त कहा जाय । इसप्रकार मानव जीवन को
सरस्वती की उपासना का मतलब है ज्ञान का गृहस्थ और साधु, इसप्रकार दो भागों में नही, उपान करना और ज्ञान तृप्ति मे ही आनन्दित किन्तु गृहस्य, विरक्त और साधु इससकार तीन रहना। इसप्रकार पवित्र जीवन विताने वाला भागा में विभक्त किया जाय । विरक्त से साधु जीवन्मुक्त व्यक्ति विद्यायोगी या सारस्वतयोगी है। का स्थान उच्च है, क्याक विरक्त में सिर्फ संयम प्रश्न- विद्योपार्जन करना, अन्य निर्माण और सदावा ही है जब कि साधु मे संयम करना कविता वगैरह बनाना भी एक बड़ी