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________________ - - -- - - - - जाता है और उनके विषय में योगी को विचार- अप्रिय बनता है । जो मेरे धर्म की, कर्तव्य को धारा बतादी जाती है। मुख्य भय इस हैं-- पर्वाह नहीं करता उसकी पर्वाह मैं क्या करू १ १ अभोगमय, २ वियोगभय, ३ संयोगमय, जब किसी रियजन के सर जाने की सम्भा. ५ रोगमय, ५ भरणभय, ६ अगौरवमय, ७ अय. वना होती है तब योगी सोचता है- मेरा कर्तव्य शोमय, ८ असाधनमय ६ परिश्रमभय १० अज्ञा. उसकी सेवा करना है सो मैं सेवा करूगा, बचाने नमय की पूरी कोशिश करूंगा, उसके विपय में पूरा . १ अभोगभय (मोजुशोडियो)-इन्द्रियों के ईमानदार रहूँगा फिर भी अगर वह न पच सके विषय अच्छे अच्छे मिले, खराब न मिलें, इस तो उसकी योग्यता के अनुसार उसे यशस्वी धनाविपय का भय अभोगमय है। योगी सोचता है- ऊँगा, और क्या कर सकता हूँ | जहा एक दिन इन्द्रिया की असली उपयोगिता तो यह है कि चे संयोग है वहा एक दिन वियोग अनिवार्य है। यह बतायें कि शरीर के लिये कौनसी वस्तु लाभ- इस प्रकार वह वियोग से भी निर्भय रहकर कर है कौनसी अलामकर । पर मनुष्य ने अपनी काव्यरत रहता है। आदत को इस प्रकार विगाह लिया है कि वह वियोग से उसकी अपरा मनोवृत्ति शुन्ध समझ हो नही पाता कि अच्छा क्या और बुरा भी हो सकती है पर वह क्षोभ स्थायी नहीं होता क्या १ रसना इन्द्रिय को दुष्पक्व रोगजनक वस्तु और पहिले से उसका भय और पीछे से उसकी में भी आनन्द आता है और स्वास्थ्यकर वस्तु शोक इतना तीन नहीं होता कि उसे पाप में भी बेस्वाद मालूम होती है तब रसना इन्द्रिय की प्रवृत्त करा सके. यही योगी को निर्भरता है। पचाह क्या करना चाहिये १ कानों को सदुपदेश ३ संयोगमय (युगोडिडो)- अप्रियजनमी अप्रिय मालूम होता है राजस और तामस संयोग के विषय में भी योगी निर्भय रहता है। शट भी अच्छे मालूम होते हैं तव कान की उसके हृदय में प्रेम रहता है इसलिये अप्रियजन पर्वाह क्यों की जाय । इस प्रकार इन्द्रियविषयों में को भिय बनाने की आशा रहती है। अगर प्रिय "अनासक बन कर वह निर्भय हो जाता है। न बनासके तो उसके सघर्ष से बचकर रहने की इसका मतलब यह नहीं है कि वह इन्द्रियों आशा रहती है अगर संघर्ष में पाना ही पड़े तो को अनावश्यक कष्ट देता है। मनलब यह है कि न्याय से रहने और फिर भी अगर कुछ फल कर्तव्य के सामने, लोककल्याण के सामने वह भोगना पड़े तो सहिष्णुता का परिचय देने की इन्द्रियकों को पर्वाह नहीं करता। इस तरह से आशा रहती है इसलिय अप्रिय जात-संयोग से वह निर्णय रहकर आगे बढ़ता है। वह नहीं डरता। २ वियोगमय (नेयुगो हिडो)- प्रियजन के रोगमय (रुगो डिडो)-रोगमय इसलिये वियोग की तरफ से भी वह निर्भर नहीं होता कि वह मिताहारी जिल्लावशी होने के श्रगर कोई प्रियजन आकर कहे कि जिस कारण बीमार ही कम पड़ता है। फिर भी रोगों अपना कर्तव्य समझते हो उससे अगर विम का शिकार हो जाय तो रोग से शरीर का .' हो जानोगे तो मैं चला जाउँगा। योगी उत्तर . स्वभाव है। यह सोचकर दुखित नहीं होता। रोग देगा- नहीं चाहता कि आप चले जाँय पर डावा, वेदना के सहने का मनोबल रखता है। " का अन्तिम परिणाम मृत्यु है उससे वह नहीं कर्तव्य से मेरे विमुख हुये बिना अगर आपने शारीरिक क्षमता के कारण या वेदना की गुरुता रह सकते हो तो मैं रोक नहीं सकता। के कारण कष्ट असह्य हो तो उसकं उद्गार शाणिक योगी सोचता है--स्वभाव से कौन प्रिय है होते हैं। मन साधारण जन की अपेक्षा स्थिर कौन अप्रिय र व्यवहार से ही राणी रिय और रहता है।
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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