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________________ सत्पात मतलब है ऐसा महान विश्वगुरु जो देव कोटि को बाज तथ्यशून्य कही ना सकती है। इसमें म जा पहुंचा है अर्थात् व्यनिदेव । व्यक्तिदेव को शास्त्रकारों का अपराध नहीं होना क्योंकि उनने भी परीना करना जारी है क्योंकि ईसा भी हो तो अपने जमाने में जितना तथ्य मिल सकता सकता है कि अयोग्य व्यक्ति भी कारणवश था उतना तथ्य लिख दिया। अब आज अगर व्यक्किदेव मान लिया गया हो। इस प्रकार किसी ज्ञान का विकाम हो जाने से पुरानी मान्यनाए' के भो वचन हो उनकी यथासम्भव जाँच तो होना अतथ्य होगई हैं तो उन्हे घटल देना चाहिये । ही चाहिये । परोन होने के कारण ग र की ऑच शास्त्रकार जितना कर सकते थे किया, अब हमे नहीं हो सकती तो उसके वचन की जॉच कुछ आगे बढ़ना चाहिये और शास्त्रकारी ने आवश्यक है। जितनी सामंत्री बी उसके लिये उनका ऋतज्ञ होना परिस्थिति बदलने से भी शास्त्र को बन चाहिये ओर कृतज्ञतापूर्वक उनके वचनो की सी बात अग्राह्य होजाती हैं। जो बान एक समय परीक्षा करना चाहिये। के लिये जनकल्याणकर होती है वही दूसरे समय जहाँ परीक्षकता है वा शास्त्र मूदता नहीं के लिये हानिकर या अनावश्यक हो जाती है। रहती परीकता का विषय में और शास्त्र के उपइसमे शास्त्र का दोष नहीं है यह प्रकृति का ही योग के विषय मे पहिले अध्याय में जो कुछ परिणाम है। उस परिस्थिति क विचार से भी लिखा गया है उसपर ध्यान देने से और उसे शाव की परीक्षा श्रावश्यक है। जीवन में उतारने से शास्त्र-मूढता दूर होजाती है याद रग्बन में या कागज आदि पर नकल फिर भी स्पष्टता के लिय कुछ कहना जरूरी है। काने वा छापन में शास्त्रा के शब्द बदल जाते .. शास्त्र मुहरा के कारण नाना तरह के मोह है इस प्रकार शास्त्र ज्या के त्यो नही रह पाते हैं। १ स्वत्वमोह, २ प्राचीनता-मोह. ३ भाषाइसलिये शास्त्र की परीना आवश्यक है। मोह, वेपमोह आदि। कभी कभी शट तो नहीं बदलते पर अभी अपने सम्प्रदाय के, जाति के प्रान्त के और बदल जाता है। कुछ तो बहुत समय बीत जाने देश के बादमी की बनाई यह पुस्तक है इसलिये से शब्दों का वास्तविक अर्थी मानूम नहीं रहता सत्य है यह स्वत्व-मोह है। स्वर्गीय विद्वान की जैसा कि वेठा के विषय में है। और कुछ लक्षण बनाई यह पुस्तक है इसलिय सत्र है यह चीव्यखना नादि से अर्थ धमल दिया जाता है। नना-मोह है। यह पुस्तक संस्कृत नाइन अरबी यही कारण है कि एक ही पाठक नाना अर्थ ही पारसी ले.टन भाषा का है इसलिय सत्य है यह जात है और उन श्रथा के सम्प्रदाय भी चला भापा-मोह है । यह पुस्तक जिसने बनाई है वह है इसलिये भी शास्त्र की परीक्षा आवश्यक है। संन्यासी था मुनि था फकीर था इसलिये सस्त्र शास्त्रकार-फिर व गुरु या परम गुरु कोड है यह वप माह है। ये सत्र मोह शास्त्र-मृढ़ता के भी कास सर्वच नही हो सकते जिनकं ज्ञान चिन्ह है। बहुत से लोग किसी पुस्तक को इसी लिये शास्त्र कह दो है कि यह पुस्तक सस्कृत को जान की सीमा कहा जा सके। मा सर्वज्ञ कोई भी नही हो सकता। वह अपन जमाने के आदि किसी प्राचीन भाषा में बनी है, अपने सम्प्रदाय की है और बनानेवाला मर गया है अनुम्प महान ज्ञानी हो सकता है। पर इसके वह मान्यता शास्त्र-मृद्वत्ता का परिणाम है । इस पार जग में मान की वृद्धि स्वाभाविक है। प्रकार शास्त्रमूढना के और भी रूप है उन सय मयम का विकास भले ही नही पर ज्ञान का का त्याग करना चाहिये और शास्त्र यी यथा. काम मातही होता है पीर होरहा है। इस साध्य परीक्षा कर उसका उपयोग करना निय गात्रा में मी बहन नी याने या आनी है चाहिय ।
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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