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है । गुरुडम फैला है वेप और पद को अधिक महत्व देने से । सो देना चाहिये जब गुरु के योग्य गुर दिखे तभी गुरु मानना चाहिये । हमारे सम्पदाय का आचार्य है, मुनि है, अमुक वेष मे रहता है इसलिये हमारा गुरु है जब यह नियम टूट जायगा तब गुरुडम न फैन पायगा । गुरुडम शब्द ऐसे nate के लिये प्रचलित है जिस मे गुरु पrds fद के कारण भक्तोपर fer after रखता है या उस अधिकार का दुरुपयोग करता है, साधुताहीन जीवन बिनाता है. छलकर लोगों की सम्पत्ति लूटता है और उससे मौज करता है, उन्हें अंधश्रद्धालु बनाता है। ऐसे गुरु का नाश अवश्य करना चाहिये । पर जहाँ ज्ञान, त्याग, सेवा, विवेक है वहाँ गुरुत्व माना जाय तो कोई हानि नहीं है थल्कि लाभ है।
प्रश्न - लाभ क्या है ?
उत्तर---अज्ञान के कारण कोई अच्छी बात हमारी समझ मे नही आती तो यह समझाता है, कुमार्ग में जाने से रोकता है, प्रमाद दूर करता है, साहस देना है, धैर्य की रक्षा करता है वित्त ants होता है और भी जो उचित सेवाएँ हो सकती हैं-करता है ।
प्रश्न-- गुरु और शिष्य ने अंतिम निर्णय कौन करे ? अगर शिष्य की चलती है तो गुरु गुलाम बन जाता है फिर वह उद्धार क्या करेगा और गुरु की चलती है तो शुरुडम फैलता है।
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उत्तर - यह तो राजी राजी का सौदा है ? बोना अपनी अपनी जगह ranत्र हैं. शिष्य को गुरु की परीना करने का पूर्ण अधिकार है लिये गुरुडम फैलने की बहुत कम सम्भावना शिष्य को वह नहीं करता ह उसके हित को पनाह करता है। इसलिये गुरु के गुलाम होने की सम्भावना नहीं है ।
- गुरु की परीना कैसे होगी ? जो ढोपन में है उन्हें दूसरे मे निकालना कहाँ तक वचन है ?
उत्तर- ईर्षा द्वेषादि के वश होकर किसी के दोष न निकालना चाहिये पर किसी पर कोई जिम्मेदारी डालना है तो उसमे उस जिम्मे दारी को संभालने की योग्यता है या नहीं इसकी जाँच तो करना ही चाहिये। हो सकता है कि जो
उसमे है वह दो अपने मे उससे अधिक हो और अपने दोषो की संख्या भी अधिक हो फिर भी हम उसके ढोप निकालेंगे क्योकि इससे हमें अमुक्त योग्यताका काम लेना है, अध्यापक अर अध्यापक क योग्य नहीं है तो इतने से ही वह सन्तोष नही हो सकता कि विद्यार्थी तो और कम जानता है। गुरु को गुरु के योग्य बनना चाहिये। जो जिस पद पर है उसे उस पद के योग्य बनना जरूरी है | इस प्रकार गुरु की पूर्ण परीक्षा कर गुरुन्मूढता का हर प्रकार त्याग करना चाहिये । साधक गुर-मूढता से सा दूर रहता है।
शास्त्र मूढता ( ईनू तो ) सायक मे शास्त्रमूढता भी नहीं होनी परम गुरुओं या गुच्छां के वचन शास्त्र हैं। जब हम गुरुआ की परीक्षा करते हैं तो शास्त्र की भी परीक्षा करना छाव श्यक है।
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प्रश्न - रुखो की परीक्षा करने से काम चल जाता है फिर शास्त्रों की परीक्षा करने की क्या जरूरत है ? चासकर परम गुरु के वचनो कीपन करना तो और भी अनावश्यक है ।
उत्तर---इसके पांच कारण हैं। सुनुपरोक्षता (तार नोइन्डो ) २ परिस्थिति परिवर्तन (लजिज्जो मुरो) शब्द-परिवर्तन (इकोमुरो) ४ चर्थ परिवर्तन, ( आगोगे ) अविकाम ( नो लनीभो )
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शास्त्र के उपयोग के नया तो स्वर्गीय हो जाते हैं या बहुत हो जाते हैं। जब गुरु नहीं मिलते तब हम उनके बचना से आन चज्ञात है। "मी हालत में गरी का ठीक ठीक सत्यासत्य की जाँच कान के लिये उनके की
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