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________________ [ ११६] सत्याभूत - - वलीका अादि पद समय समय पर लोगों ने धर्म कोई कोई सार्थक क्रियाएँ भी होती है, जैसे रस्था की व्यवस्था के लिये बनाये थे। हरएक सेला, विनय आदि ये साधुता के चिन्ह हैं अपने वीज का दुरुपयोग होता है पढ का तो कुछ से अधिक मात्रा मे हा नो गुरुत्ता के चिन्ह वन वशेष मात्रा में फिर भी जो उस संस्था के अग अगते । सिन्हे पद का सन्मान रखना चाहिये। उसका विद्वत्ता भी गुरुता का चिन्ह नहीं है । अनेक दुरुपयोग हो रहा हो या अनावश्यक हो तो भले भापामा का ज्ञान, वक्तृत्व, लेखन, कवित्व, धर्म, ही वह नष्ट कर दिया जाब पर व्यवस्था के लिये दर्शन, इनिहास, पदार्थ, विज्ञान, गणित, ज्योतिप इड का सन्मान करना उचिन हैं। इतना होनेपर प्रादि का पाहित्य यश और सन्मान की चीज भी पद गुरुना की निशानी नहीं है और पद का है पर इसका गरुत्व से सम्बन्ध नहीं है। इससे दुरुपयोग होरहा हो तो उसको निभाते जाना भी मध्य शिक्षक हो सकंगा गुरु नहीं । गुरुता का सचिन नहीं है। साफ किसी पट के कारण किसी सम्बन्ध ज्ञान के साय सनागर और सेवा से को गुरु नहीं बनाता। है। ज्ञान आवश्यक है, पर सिर्फ ज्ञान से कोई क्रियाकाण्ड भी गुरुता की निशानी नहीं गृह नहीं कहलाता। हां, हो सकता है कि उनका है। एक प्रादमी अनक नरह के आमन लगाता ज्ञान किताबें पढ़कर नहीं, किन्तु प्रकृति को पढकर है, अनेक बार स्नान करना है या बिल्कुन स्नान आया हो, नाममात्र की किताने पढ़कर चिन्तन नहीं करता. धूप में नाना है या अग्नि तपता है, मनन से आया हो। मिर के बाल हाथ से उसाड लेता है, घटो पूना अपना असली गर तो मनुष्य स्वयं है पर करता है, जाप जपता है, एकान्त में बैठता है, हरएक की कल्याण मार्ग का पूरा परिचय नहीं मौन रखता या दिनभर नाम 'पानि जपता रहता होता कभी कमी जटिल समस्याएँ अाकर किंक. है, उपवास करता है या एक ही बार याता है, तव्यविमूढ बना देती है, कभी कभी समझते हुए अनेक घरा स मांगकर खाता है या एक ही में जाना है इत्यादि बहुतसा क्रियाकाण्ड भी भी खुद पर अकुश राशना कठिन होता है इसके लिये अधिकांश मनुष्यों को गरु की आवश्यकता गन्ता की निशानी नहीं है। उनमे बहुतमा निर होनी है पर ग रु थनाना ही चाहिये-ऐसा कोई बैंक है. बहुनसा सिर्फ व्यायाम क समान उपनियम नहीं है। जिनमें सदसद्विवेक काफी है योगी है वह भी किसी खास समय के लिये-पर और मनकी उधाम वृत्तियो पर भी गहना की निशानी कोड नहीं है। अंकुश है उन्हे गुरु की कोई जरूरत नहीं। कियाकाण्ड वही उपयोगी है जिससे जगत गुरु मिल जाम नो अला, न मिले तो गमहीन की मया होनी हो, जगत का कुछ लाभ होता हो। जीवन अच्छा, पर कुगरु-सेवा अच्छी नहीं। सिमी रह स समाधारगना बनताकर लोगों को भूख स नादमी इतनी जल्दी नहीं भरता जितनी चमकाना. का "यान अपनी तरफ वीचना बल्ली विप ग्याकर मरना है। गुरुटीन से कुगरु. और इस प्रकार अपनी पूजा काना प्रकार सेवक को हानि कई गणी है। का उम्भ है। इसका मरना से कोइ सम्बन्धन प्रश्न-गुरु का तो नाश ही करना चाहिये। मनिय नाना के लिये ये व्यर्थ नियापाए हैं। के होने स गुरुहर फैलता है धर्म के नाम -मान भी पासवा में उपयोगी पर अत्याचार शुद्ध होने है, समाज का बोझ चाग्यि निग्क कट सहन क कोड मून। बढता है। यायि गुरु को जन्मन ही क्या है? र कितना सा मरत है अपना उत्त: वैधानिक आवश्यकता रही हैं। गगा न मा मते मा मात्र निरर्थक अमुक आदमी को गुरु मानना ही चाहिय या मानांविषय में नहाना चागत गर का पट होना ही चाहिय या निगम भी नरी
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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