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________________ ছোৱ १२४ - संस्था के सदस्य हो जाने से गुरुत्व या साधुता सुविधा, जलवायु तथा आर्थिक स्थिति के अनुनहीं जाती। सार होना चाहिये । वेष के द्वारा जनता मे भरम प्रश-दुनिया के बहुत से काम वेप से ही पैदा न करना चाहिये और न अपने से भिन्न चलते है। खास कर अपरिचित जगह मे कौन वेप देखकर घृणा । वेष को लेकर साधुता में मनुष्य कितना आदरणीय है इसका निर्णय उसके काफी भ्रम पैदा किया जाता है क्योकि साधुत वेप से ही करना पड़ता है। सब से अधिक पूज्य और वदनीय है और गुरुता उत्तर-वेप के ऊपर पूर्ण उपेक्षा करने की तो उससे भी अधिक | गुरुना का तो हमारे जीवन की उन्नति-अवनति से बहुतसा सम्बन्ध आवश्यकता नहीं है किन्तु उसकी उपयोगिता मामूली शिष्टाचार तक ही रहना चाहिये । विनय है, इसलिये इस विषय में बहुत सतर्क रहने की जरूरत है। सिर्फ वेप देग्व कर किसी को गुरु के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। शिष्टा. चार मे भी साधुता या अन्य गुणों की अवहे या साधु न मानना चाहिये। लना न होना चाहिये । उदाहरणार्थ एक समाज प्रश्न-जो साधु-संस्था जगत का कल्याण संबी विधान या श्रीमान करती हो उसमें अगर धोखे से कोई निर्षल या वेपी जैनमुनि, बौद्ध श्रमण, हिन्दू संन्यासी, . चालाक श्रान्मी घुस जाय और अपने दोप से पारी या फकीर पाया तो जबतक उसके विशेष उस माधु-संस्था की बदनामी करे सो साधु-संस्था गुणों का परिचय नहीं मिला है तबतक वह एक की बदनामी रोकने के लिये उस साधुवेषी के सभ्य गृहस्थ के समान आदर पानगा। बाद दोप छिपाये रखना और साधु-संस्था के सन्मान में परिचय होने पर उस समाजसंची की अपेक्षा करने के लिये उस साधु का सन्मान करना क्या साधुवेपी की सेवा आदि जैसी कम-ज्यादा होगी अगर उसके अनुसार श्रादर, पायगा। उत्तर-अनुचित है। साधु-संस्था को बद नामी से बचाने के लिये दोपी के दोष दूर करने प्रश्न-वेष की उपयोगिता कहाँ नक है। की या उसे अलग कर देने की जरूरत है न कि नियत वेप रखना चाहिये या नहीं? सब को छिपाने की । छिपाने की नीति से साधु-संस्था कैसा वेप रखना चाहिये । घटमाशों का अड्डा बन जानी है और सबसे | उत्तर-वेष भी एक तरह की मापा है इस पवित्र संस्था सबसे अधिक अपवित्र होकर लिये अपने व्यक्तित्व का परिचय इस मौन भाषा जनता का नाश करती है और साधु-संस्था की मे दिया जाता है। पर भापा तो यही पता बदनामी समा के लिये हो जाती है । दुगचारी सकती है कि यह आदमी यह बात प्रगट करना और बदमाश लोगों को उससे अलग कर दिया चाहता है। यह बात इसमें है ही, सा नियम जाय तो जनतापर इस का अच्छा प्रभाव पडता तो है नहीं, इसलिये जैस कहने मात्र से हम है। उनना समझने लगती है कि इस साधु-सस्था किसी को नाधु या महापुरुष नहीं मान लेते-- में बगव आदमीकी गुजर नहीं है, खराब आदमी उसके अन्य कार्यों का विचार करते हैं उसी यहा से निकाल दिया जाता है। वेप की इज्जत प्रकार वेष-मात्र से किसी को साधु न मान लेना रग्बत हो तो वेपका दुरुपयोग न करनेदेना चाहिने । चाहिये। किसो संस्था की सदस्यता बताने के सिर भी यह नो हर हालत में आवश्यक है कि लिये नियत-वेध भी उचित है फिर भी वेप ऐसा वेप की इज्जत साधुता आदि से अधिक न हो। रखना चाहिये जो बीमत्स या भयंकर न हो। वेप के ममान पर भी गुरुता की निशानी नान र लेकर नगर में घूमना, खोपड़िया पहि- नहीं है। पद का सम्बन्ध किसी संस्था की नना श्रादि अनुचित है। साथ ही क्षेष अपनी व्यवस्था से है-गुरुता से नहीं । आचार्य, पोप
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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