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________________ द्दाएका ड कोई नैतिक बात नहीं कही जा सकती। आजकल भी असवर्ण विवाह होते हैं, परन्तु उनका रूप चदल गया है । जो लोग कार्य से जुदे वर्ष के हैं उनमे आपस में शादी हो जाती | एक अध्यापक एक व्यापारी की पुत्री से शादी कर लेगा, एक व्यापारी अध्यापक की पुत्री से शादी कर लेगा। ये सब श्रसवर्ण विवाह है, परन्तु इनका विरोध नहीं होना। परन्तु जो लोग जन्म से दूसरे वर्ण के है और कर्म से एक ही वर्ण के हैं उनमे अगर शादी हो तो विरोध होता है । इस मनोवृत्ति की मूढता इतनी स्पष्ट है कि उसे अधिक स्पष्ट करने की जरूरत नहीं है। श्रमवर्ण विवाह मे अगर कोई आपत्ति खडी की जा सकती है तो उसका सम्बन्ध कर्म से ही होगा जन्म से नही। क्योकि एक स्त्री ब्राह्मण कुन मे पैदा हुई हो तो उसे शुद्र या व्यापार करनेवाले घर जाने में संकोच हो सकता है, परन्तु शूद्र कुल मे पैदा होनेवाले किन्तु विद्यापीठ में अध्यापकी करनेवाले के घर जाने में क्या आपत्ति हो सकती हैं ? असवर्ण विवाह का अगर विरोध भी किया जाय तो कर्म से सवर्ण विवाहा का विरोध करना चाहिये न कि जन्म से, और कम से असवर्ण विवाह का विरोध भी वही करना चाहिये जहाँ कन्या का विरोध हो । के बहुत से लोग ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्णों को जाति का रूप देकर व विवाह का विरोध करते हैं, परन्तु इन वर्णों को जाति का रूप देना ठीक नहीं, क्योंकि जाति की दृष्टि से तो मनुष्य एक ही जाति हैं । व व्यवस्था तो आर्थिक व्यवस्था के लिये बनाई गई है । जाति का सम्बन्ध आकृति आदि के क्षेत्र से हैं। जैसे हाथी, घोडा, ऊंट आदि में व्याकृति भेद से जातिभेद माना जाता है वैसा मनुष्यो के भीतर कहीं नहीं माना 1 जाता । १५२ । '३ । जहाँ जातिभेद होता है वहाँ लैंगिक सम्बन्ध कठिन होता है। अगर होता है तो सन्तान की विमाकृति दिखलाई देती है, और कहीं कहीं यागे संतति नहीं चलती । श्रसवर्ण विवाह से यह बात बिलकुल नही देखी जाती। जिन देशों मे वर्णव्यवस्थाका ऐसा कट्टर रूप नहीं है और अबाध रूप में असव विवाह होते है, वहाँ सन्तान पर म्परा बराबर अच्छे ढंग से चलती है। ब्राह्मण का शूद्र के साथ भी सम्बन्ध किया जाय तो भी सन्तान परम्परा अबाध रूप में चलेगी। इसलिये वर्णों को जाति का रूप देना ठीक नहीं। हॉ, जाति शब्द का साधारण अर्थ समानता है, । वर्णो में अर्थोपार्जन के ढगकी समानता पाई जाती है, इसलिये इन्हें इस दृष्टि से जाति भले ही कहा जाय, परन्तु इस ढंग से तो टोपीवालो की एक जाति, और पगडीवालों की दूसरी जाति कही जा सकती है। इसलिये विवाह सम्बन्ध अर्थात् लैगिक सम्बन्ध के लिये जो जातिभेद हानिकर है, वैसा जातिभेव ही वास्तव मे जातिभेद शब्द से कहना चाहिये, जोकि वरभिद मे नहीं हैं। इस लिये जातिभेद की दुहाई देकर असवर्ग विवाह का निषेध नहीं किया जा सकता । आज तो वर्णव्यवस्था है ही नहीं, अगर हो तो उसका क्षेत्र बाजार में है, रोटी-बेटी व्यवहार मे नहीं। इसलिये उसके नाम पर मनुष्य जाति के टुकडे करने की कोई जरूरत नहीं है । घृणा और अहंकार की पूजा करना मनुष्य सरीखे सममदार प्राणी को शोभा नहीं देता। इसलिये इस दृष्टि से भी हमे मनुष्यन्ना की उपासना करना चाहिये । उपजाति कल्पना - देश, रंग और श्राजी - विका के भेद से मनुष्यने जिन जातियो की कल्पना की उन सबसे अद्भुत और संकुचितता-पूर्ण न उपजातियो की कल्पना है। कहीं कहीं को जाति कहते हैं। परन्तु इनको जाति समझना जाति शव का मखौल उड़ाना है। हॉ, रूढ शब्द के समान इसका उपयोग किया जाय तो बात दूसरी हैं। प्रातो मे इन उपजातियो को 'ज्ञाति' कहते हैं। इसका अर्थ है कुटुम्ब । इस दृष्टि से यह उपयुक्त है। 'न्यात' शब्द भी इसी शब्द का अपभ्रंश रूप है, जो इसी अर्थ में प्रचलित है 1 I 1
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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