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________________ सत्यात फिर मी पूर्ण आनन्द पाते हैं। गाय बछड़े से या ६-विषयानन्द [ शो शिम्सो । इन्द्रियों मां बेटे से कुछ पाने की इच्छा से सुखी नहीं के विपय मिलने से जो आनन्द होता है वह होती किन्तु प्रेम से सुखी होती है। प्रेम जितना विषयानन्द है। स्वादिष्ट भोजन, संगीत, सौन्दर्य, लता जाता है सुख उतना ही निर्दोष और स्थायी सुगंध, अच्छा स्पर्श आदि के श्रानन्द को विपरेता जाता है । जो विश्वप्रेमी है वह प्रेमानन्द की यानन्द कहते हैं। राकाष्टापर पहुंचा हुया है। वह पूर्ण वीतराग पत्र जीवनानन्द भी खाने-पीने का आनन्न वर्ण अकषाय, पूर्ण योगी और पूर्ण सुखी है। है और विषयानन्द भी खाने-पीने का आनन्द है. माल अधिक से अधिक निर्दोष, और अधिक तब दोनोमे अन्तर क्या है ? ने अधिक स्थायी, तथा दूसरों के लिये भी सुख उत्तर-जीवनानन्द में इन्द्रियों के मनोज्ञ वर्धक है । संयम आदि समृत्तियों भी इसी के । * विषयों के सेवन की मुख्यता नहीं है। पेट भरना कारण पैदा होती हैं। एक बात है और स्वाद लेना दसगे। अगर आव३-जीवनानन्द [जिवो शिम्मो-जीवन श्यक तत्वों से पूर्ण भरपेट भोजन मिलजाय तो के लिये उपयोगी पदार्थों के मिल जाने से वो रूखे-सखे भोजन से भी जीवनानन्द मिल सकेगा, आनन्न होता है वह जीवनानन्द है । जैसे, रोटी पर विषयानन्द न मिलेगा । अगर स्वादिष्ट भोजन मिलने, पानी मिलने, हवा मिलने आदि का मिलजाय तो खालीपेट रहनेपर भी विषयानन्द प्रानन्द । मिलजायगा पर जीवनानन्द न मिलेगा। शरावी -विनोदानन्द (हशोशिम्मा) खेल कद जीवनानन्द नही पाता, पर विययानन्द पाजाता हँसी श्रादि का आनन्द विनोदानन्द हैं। यद्यपि है। विषयानन्द अन्त में प्राय दु:न्द बढ़ाता है विनोदानन्द्र कभी प्रेमानन्द, कभी विपयानन्द पर जीवनानन्द प्राय: ऐसा नहीं होता। यद्यपि कमी महत्वानन्द पनजाता है परन्तु कभी कभी किसी एक क्रिया से जीवनानन्द और विषयानन्द मनुष्य अकेलेमें भी खेलता है, कोई स्वार्थ न होने दोनों ही मिल सकते हैं फिर भी कमी कमी विष. पर भी, महत्व का विचार न होनेपर भी प्राणी यानन्द के चकर में पड़कर उसकी प्रतिमात्रा था को खेलने में आनन्द पाता है। इसलिये समता दुमात्रा से मनुष्य सीधनानन्द खो बैठता है इस. के लिये इसे एक अलग आनन्द ही समझना लिये कभी कभी दोनों आनन्दों में विरोध पैदा चाहिये । छोटे बच्चामे लेकर बूढो तक को इस होजाता है। आनन्द की चाह रहती है । यह ठीक है कि उम्र -महत्वानन्द (धीशो शिम्मो ) मानके अनुसार इममें न्यूनाधिकता होती है, और प्रतिष्ठा यश आदि का आनन्द महत्त्वानन्द है। विनोट केम्प भी बदलते हैं। दुसगे से तुलना करनेपर जो अपने महत्व का -स्वतंत्रतानन्द | मुच्चो शिम्मो 1- अनुभव होता है वा भी महत्वानन्द है। दुम सवेदनमय बन्धन से घटना स्वनंत्रतानन्द महत्वाकाक्षा एक प्रबल आकाना है जो थोड़ेहत ।।म्वतंत्रता से मग सुख मिले तो वह सुग्व रूप में सत्र में पाई जाती है। निराशा या मीनता • अलग होगा, परन्तु वह मिले या न मिले, या के कारण कभी सोजाती है, गम्भीरता के कारण टुव मिल, पर मनुष्य अपने को स्वतंत्र अनु- कभी कभी बाहर प्रगट नहीं होती, मात्रा से । भव करे, इममें भी एक तरह का प्रानन्द है। अधिक महत्व मिलजाने से या मिलते रहने से । यथाशक्य अपनी इच्छा के अनुसार काम करने उसपर उपेना अर्थात् लापर्वाही पैदा होजाती है, मेक विगेरानन्द पाना है । कैदी जब जेल अथवा संयम के कारण मर्यादित रहती है, यां में परते है, नम इसी प्रानन्द का अनुभव चतुरता के कारण मर्यादित रूप में प्रगट होनी है. यह मय है. पर यह किसी न किसी मनमें सत्र में
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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