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________________ - - है। म राम, म कृष्णा, म महावीर, म. बुद्ध, प्रत्येक जीवन में चारों जीवार्थों का ससम. ईसा, म मुहम्मद आदि महापुरुषों का जीवन न्वय हो तभी वह जीवन सफल कहा ला सकता इसी कोटि का था। यह आदर्श जीवन है। है। मोत को परलोक की दार्शनिक चर्चा का प्रश्न-स. राम, म महम्मद आदि का विषय न बनाना चाहिये। धर्मशास्त्र तो इसी जीवन नीतिमय था इसलिये श्राप इन्हें धर्मात्मा जीवन में मोक्ष बतलाता है वह हमें प्राप्त करना कह सकते है पर मोक्ष का स्थान इनके जीवन में चाहिये। त्रिवर्गसंसाधन नहीं चतुर्वर्गसंसाधन क्या था। इनमें संन्यास भी नहीं लिया। हमारा ध्येय होना चाहिये। तभी हम जीवाणे उत्तर-दुःखासे काफी निर्लिप्त रहना, और को दृष्टि से आदर्श जीवन बिता सकते हैं। शान्ति का अनुभव करना मोक्ष है । इसका पता २-भक्त-जीवन (भक्तजिवा) उनको कर्तव्य तत्परता, आचि और प्रलोभनो क विजय से लगता है । संन्यास लेना या न लेना ग्यारह मेट ये तो समाजसेवा के सामयिक रूप है जो अपनी मनुष्य जिस चीज का भक्त है उसी को अपनी परिस्थिति और सचि के अनुसार रखना पाने की वह इच्छा करता है उसी में वह महत्व पडते हैं । मोक्ष की सेवा तो दोनों अवस्थाओं में देखता है इसलिये दूसरे भी उसी चीज को पाने हो सकती है। की इच्छा करते हैं इससे समाज पर उसका प्रश्न-म, महावीर और म बुद्ध के जीवन अच्छा या बुरा असर पड़ा करता है। इसलिये में अर्थ और काम क्या था ? ये तो संन्यासी थे। भक्ति की दृष्टि से भी मानव जीवन के अनेक भेद म. महावीर तो अपने पास कपडा भी नहीं रखते हैं और उनसे जीवन का महत्व लधुत्व या अच्छा थे तब ये पूर्ण जीवार्थसेवी कैसे ? बुरापन मालूम होता है। उत्तर-अर्थसेवन के लिये यह आवश्यक नहीं है कि मनुष्य अर्थ का संग्रह करे। उसके भक्त जीवन के ग्यारह भेद हैंलिये यही आवश्यक है कि शरीरस्थिति के लिये , १ भयभक्त । जो कुछ वह समाज से लेता है उसका बदला २ आतंकमक्क समाज को दे यह बात दूसरी है कि महात्मा लोग उससे कई गुणा देते हैं। ४ वैभवभक्त म महावीर और म बुद्ध का जीवन साध. ५ अधिकारमात भावस्था में ही कामहीन रहा है। सिद्ध-जीवन्मुक्त ६ वेपभक्त अवस्था में तो उनके जीवन में काम का काफी स्थान था। म बुद्ध ने तो बाह्य तपस्याश्री को ८ गुणमक्त । अपनी संस्था में से हटा दिया था और म. महा . आदर्शभक्त । उत्तम धीर ने भी बाह्य तपस्याओं का अपने जीवन में १० उपकारमा ) त्याग कर दिया था। केवलज्ञान होने के पहिले ११ सत्यमक्छ । धारह वर्ष तक उनने तपस्याएं की है बाद में भयभक्त (डिर्डम)- कल्पित या अका नहीं। इससे मालूम होता है कि दनक जीवन में ल्पित भयंकर चीजों का भात या पुजारी भयमक काम को स्थान था। इस प्रकार इन महात्माओं या मयपूजक है भूत पिशाच शनैश्वर आदि की के जीवन में धर्म अर्थ काम मोक्ष चारों जीवाओं पूजा करने वाला, या आसमान में चमकती हुई फा समन्याया। विजली आदि से इरकर उसकी पूजा करनेवाला, ३ स्वार्थभक्त । जपाय ७ कलामत मध्यम
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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