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________________ पटिकांड । ६७ - -- - - - - खाते में हिंसा-अहिंसा का विचार करते समय लब नहीं है कि उन्हे दुःख कम होता है। योगी भी सिर्फ प्राणियों की गिनती नहीं देखी जाती। सयमी आदि की चेतना इतनी विकसित और उनकी चैतन्यमात्रा के अनुसार मूल्य भी देखा निर्मल होजाती है कि जिस सुखदुःख का जाता है, तभी हानि-लाम या हिंसा-अहिंसा का अयोगी और असंयमी को पता भी नहीं लगता निर्णय होता है। पर इस निर्णय की कसौटी भी उसका प्रचंड संवेदन योगी और सयमी को होता विश्वसुखवर्धन ही है। जिसमे सुखवर्धन अधिक है। जैसी गालियाँ साधारण लोग देते लेते रहते और दुखवर्धन कम, वह अहिंसा, और जिसमें हैं योगी उन्हें नहीं सुनसकता, जैसी अशान्ति में सुखवर्धन कम और दुखवधन अधिक वह हिंसा, साधारण लोग हँसते हैं योगी उससे कोसो दूर इस तरह निर्णय करना पडता है । इसप्रकार भागता है, योगी का दुख अयोगी से बहुत अहिंसा को ध्येय बनानेपर जो बात अनिर्णीत अधिक होता है। वह अपनी सहनशक्ति के द्वारा रहजाती है वह विश्वसुखवर्धन को ध्यय बनाने मे अनुन्ध रहता है, विप्रेमी होने से वैर नही स्पष्ट रीतिसे निति होजाती है। बसाता, यह दूसरी बात है पर उसे दुग्ध अधिक प्रश्न-सुखवर्धन को ध्येय बनाने से एक होता है चोट अधिक लगती है । बड़ा अन्धेर यह होगा कि संयमी योगी लोगोपर . इसप्रकार विश्वसुग्ववर्धन की नीमि संयमी आफत आजायगी। क्योकि योगी लोग के साथ किसी तरह का अन्धेर नहीं करती। दुःखको सहने की ताकत अधिक रखते हैं इसलिये सार्वकालिक और सार्वदेशिक दृष्टि से विश्वसुखउन्हें सनाना उतना बुरा न समझा जायगा वर्णन की नीति को कसौटी बनानेपर काव्यजितना असंयमी को सताना । क्योकि असंयमी अकर्तव्य का निर्णय होजाता है और इसीसें.हमे । अपनी मानसिक कमजोरी से दुःख का अनुभव अपने ध्येय का पता लगजाता है। । । अधिक करना है। इस नीति से बढ़कर अन्धेर । हमे इस संसार को अधिक से अधिक ' क्या होगा ? संयमी को कुछ पारितोषक मिलना सखी बनाना है। ससार में जो दु.ख है, उन्हें । तो दूर उसपर दुःश्व ढा दिया, और असंयमी को जितना अनसके कम करना है। दुःख से डरकर दंड मिलना तो दूर उसे संयमीसे कम दुख दिया गया दुनिया से भागना, महाप्रलय की आकांक्षा करना, ऐसी अवस्था में सयम सदाचार का मागे ही बन्द शून्यरूप होने की कल्पना करना, या आत्महत्या होजायगा और इससे दुनिया नरक बनजायगी। करना निरर्थक और दुरर्धक है। यह विवेकहीन उत्तर--'इससे दुनिया नरक बनजायगी भावुकता का परिणाम है। सत् असत होकर। इसीसे सिद्ध होता है कि संयमी को अधिक दुख शून्य नही होसकता, महाप्रलय हमारे हाथ में देने की और अशयमी को कम दुग्य देने की नीति नहीं है, आत्महत्या करके हम पुनर्जन्म के कारण विश्वसखवर्धन की दृष्टि से ठीक नहीं है । संयम दु.ख से छूट नही सकते, परलोक मे सुख की सदाचार से विश्वसुखवधन होता है, और इस- आशा हो तो वह तभी सम्भव है जब हम इस लिये जिससे संग्रम सदाचार बढे ऐसी कोशिश ससार को सुखमय बनाने की कोशिश करें। करना चाहिय । इसका एक उपाय यह है कि मरने के बाद कोई ताकन लगाकर स्वर्ग-मोक्ष में सयमी सदाचारी की इन्नत अधिक की जाय उसे हम उछल नही सकते, जो कुछ करना है इसी सविधा अधिक दीजाय । इसप्रकार सुखवणेन जीवन में करना है। इसी जीवन में विश्वसुखके नामपर थमी को अधिक दुख देने की नीति वर्धन किया तो परलोक हो तो भी हमारा जीवन नहीं अपनाई आसकती। सफल है, न हो तो भी हमारा जीवन सामान है। दूसरी बात यह है कि योगी संयमो आदि इसलिये हर कार्य मे हर समय विश्वसुखवीन हास अधिक सहन करते है पर इसका यह मत- के ध्येय को सामने रखना चाहिये।
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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